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Showing posts from November, 2011

लघु कथा : आंसू

दोनों बहुत खुश थे। हर दिन तो भरपूर जीते थे। दुनिया से बेगाने थे फिर भी खुश थे। शादी हुई। हनीमून के दोनों घूमने के लिए जयपुर पहुंचे। एक मॉल में..सामने से आते एक युवक को देखकर प्रेमिका ने पहले इगनोर करने की कोशिश थी लेकिन वह जब सामने आ गया तो उसे नजर मिलानी पड़ी। युवक ने पूछा : कैसी हो तुम? मैं बहुत अच्छी हूं। उसने थोड़ा संकोच से जवाब दिया। गुड। रहना भी चाहिए। युवक ने ठहरे हुए शब्दों में कहा। इतने में इस लड़की का पति चॉकलेट फ्लेवर्ड आइसक्रीम लेकर पहुंचता है। लड़की अपने पति से उस युवक का परिचय कराती है। लड़की ने कहा, भोपाल में एक ही ऑफिस में जॉब करते थे। आजकल ये यहीं शिफ्ट हो गए हैं। पति ने मुस्कुराते हुए युवक से हाथ मिलाते हुए हैलो कहा।उधर से भी इतनी गर्मजोशी से हाथ मिले। कुछ मिनट की बात के बाद युवक बाहर निकल गया और वे दोनों शॉपिंग करने में व्यस्त हो गए। लेकिन इस लड़की और उस युवक की आंखें हल्की गीली हो चुकी थीं। इतनी गीली कि लड़की ने तय किया कि वह कभी जयपुर नहीं आएगी। और उस युवक का क्या हुआ..लड़की को कभी पता नहीं चला....

नादान परिंदे घर आ जा..घर आ जा..घर आ जा..

रॉकस्टार फिल्म देखने के बाद आपका भी दिल कुछ यूं ही गुनगुनाने लगे तो इसे रोकिए मत। गुनगुनाने दीजिएगा बरसों बाद। नादान परिंदे घर आ जा..घर आ जा..घर आ जा..। लेकिन कुछ परिंदे जब एक बार उड़ जाते हैं तो कभी नहीं आते। वे कहीं और अपना बसेरा बना लेते हैं। या कहें कि मजबूरी होती है एक अदद आशियाने की। कभी परिंदे इस लिए उड़ जाते हैं, क्योंकि जिंदगी की जंग में हार जाते हैं। वक्त की मार से डर जाते हैं। या फिर किस्मत उन्हें किसी और जगह ले जाती है। कुछ ऐसा ही जार्डन और हीर के संग भी होता है। दोनों रॉकस्टॉर फिल्म के मुख्य बिंदु हैं। जार्डन और हीर ही क्यों, ऐसा तो हर उस शख्स के साथ होता है जो अपनी पाक मोहब्बत से बिछड़ जाते हैं। वैसे अनगिनत जार्डन और हीर हमारे आसपास भी मौजूद हैं। बस हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। खैर इस फिल्म में जिस तरह से शहरी युवा को दिखाया गया है, वह बहस के जाल में उलझ सकता है। क्या आज के शहरी युवा को इस बात से कोई फक्र्र नहीं पड़ता है कि उसका प्यार शादीशुदा है? वह अपनी दिल की बात जुबान तक लाने में उसके सामने कोई बंधन नहीं आता है। महिलाओं ने क्या अपने जिस्म से इतनी आजादी पा ली हैं कि

फेसबुक कहानी-1

हर दिन की तरह उस दिन भी मैं सामान्यतौर पर ऑफिस पहुंचा। कम्प्यूटर ऑन किया और अपने काम में मशगूल हो गया। सबकुछ सामान्य था और की नजर में। ऑफिस में काम करने वाले मेरी तरह अन्य सहकर्मियों की तरह। लेकिन घर से ऑफिस तक के दस मिनट के सफर में बहुत कुछ बदल गया था। जिस गलियों को पार कर के मैं ऑफिस तक का सफर तय करता था, आज वहां सन्नाटा ही सन्नाटा था। खिड़कियां बंद थीं। लेकिन उस घर के सामने भीड़ जमा था। अगरबत्ती की हल्की-हल्की सुगंध मेरे नखुनों से होती हुई मेरी सांसों में धुल गई थी। भीड़ में मौजूद हर चेहरा लटका हुआ था। जो खिड़की हमेशा खुली रहती थी। आज बंद थी। खामोशी। मातम। सन्नाटा। ऑफिस के लिए लेट हो रहा था। मेरे कदम और तेज हो गए। कदमों के तेज होने के साथ ही दिल की धड़कन भी दौड़ रही थी। नहीं, भाग रही थी। कई गलियों को पार कर मेन रोड पर आकर बाएं मुड़ा तो सामने ऑफिस की भव्य बिल्डिंग दिखी। मेरे कदम तेजी से दफ्तर में घुस गए। बाहर सबकुछ सामान्य था..लेकिन अंदर...