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Showing posts from March, 2009

वह पुराने दिनों में लौट चुका था...

अमित के सेल फोन पर रिंग बजती है। अचानक बजे इस फोन ने उसकी नींद को बुरी तरह तोड़ दिया था। बाएं हाथ से उसने फोन उठाया तो दाएं हाथ से लाइट का स्विच खोजना शुरु किया। फोन जयपुर से ही था। इस फोन कॉल ने अमित की आधी रात को तपती दोपहरी में बदल दिया था। अभी-अभी अमित को पता चला - पाखी की शादी है। बारात राजस्थान के कोटा शहर से आएगी। इस खबर पर वह कैसे रिएक्ट करे ? वह सोच नहीं पा रहा था लेकिन वह बैचेन हो चुका था। उसने आसपास की पूरी दुनिया को तहस नहस कर दिया था। इस दुनिया में वह अकेला बचा था। लेकिन यह सब ख्वाबों में था। लेकिन सच्चई यही थी कि वह पूरी दुनिया को तबाह करना चाहता था। वह पाखी और अपने पुराने रकीब से पूछना चाहता था कि वह दोनों क्यों अलग हो गए। पाखी अमित को नहीं मिल पाई पर वह इस बात से खुश था कि उसके जीवन में शुभ है। लेकिन आज पाखी और शुभ भी अलग हो चुके थे। अमित से शुभ को फोन लगाया। घंटी लगातार बज रही थी लेकिन कोई अमित का फोन उठाया नहीं गया। अमित और अधिक बैचेन हो चुका था। उसने पाखी से बात करनी चाही पर न जाने क्यूं उसने उसे कॉल नहीं किया। घड़ी रात के दो बजा रही थी। इसी के साथ वह पाखी के साथ बित

एक नजर यारा दा ठर्रापना पर

हिंदी में इस वक्त इतने ब्लॉग हो गए हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता है कि कौन से ब्लॉग को पढ़ा जाए और कौन सा छोड़ा जाए। कुछ ऐसे ब्लॉग हैं जिन्हें चौबीस घंटे में एक बार देखना ही पढ़ता है। मजबूरी सी हो गई है। तो कुछ ऐसे ब्लॉग भी हैं जहां कभी कभी नजर पढ़ती है। कुछ ब्लॉग जिन पर कभी कभी जाना होता है, उन्हें पढ़कर यही लगता है कि इनकी गलियों में कभी कभी क्यों जाया जाए। रोज क्यों नहीं? मसलन एक नजर शब्द योग पर। शब्द योग ब्लॉग पर जहां कुछ अच्छे व्यंग्य हैं तो कुछ दिल को छूती कविता। शब्द योग ब्लॉग के लेखक अनुज खरे भोपाल में रहते हैं और दैनिक भास्कर में कार्यरत्त हैं। इनकी व्यंग्य की शैली कमाल है। यकीन नहीं आता तो एक नजर यारा दा ठर्रापना पर। इसे पढ़ने पर आप बिना कमेंट के रही नहीं सकते हैं। तो देर किस बात की। जरा जल्दी से पढ़कर मुझे बताएं।

उनको प्रणाम!

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम। कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए! उनको प्रणाम! जो छोटी-सी नैया लेकर उतरे करने को उदधि-पार, मन की मन में ही रही, स्वयं हो गए उसी में निराकार! उनको प्रणाम! जो उच्च शिखर की ओर बढ़े रह-रह नव-नव उत्साह भरे, पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि कुछ असफल ही नीचे उतरे! उनको प्रणाम एकाकी और अकिंचन हो जो भू-परिक्रमा को निकले, हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके इतने अदृष्ट के दाव चले! उनको प्रणाम कृत-कृत नहीं जो हो पाए, प्रत्युत फाँसी पर गए झूल कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी यह दुनिया जिनको गई भूल! उनको प्रणाम! थी उम्र साधना, पर जिनका जीवन नाटक दु:खांत हुआ, या जन्म-काल में सिंह लग्न पर कुसमय ही देहाँत हुआ! उनको प्रणाम दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत? पर निरवधि बंदी जीवन ने जिनकी धुन का कर दिया अंत! उनको प्रणाम! जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! उनको प्रणाम! - बाबा नागर्जुन -

वह फिर उसके साथ होली नहीं मना पाया

उसे अचानक एक भूली बिसरी याद आती है। कई साल पहले जब वह कॉलेज में पढ़ता था तो वहां वह भी साथ ही पढ़ती थी। नजर मिलने के साथ ही वह उसके प्रेम में रंग चुका था। पहली होली पर वह घर चली गई थी जो उत्तर प्रदेश में कहीं था। लेकिन दूसरी होली में वह इसी शहर में थी। स्थिति अब बदल चुकी थी। वह अब उसके साथ होली नहीं खेल सकता था। देखते-देखते वह परायी हो गई थी। वह किस रिश्ते से उससे होली खेलता। वह अब तक चाहता रहा कि उसे वह रंगे अपने रंग से। शुभ के साथ पाखी होली खेल रही थी। कॉलेज के अन्य साथी भी उससे होली खेल रहे थे। अमित को कुछ हो रहा था। शायद वह अंदर ही अंदर जल रहा था। वह उसके साथ होली खेलना चाहता था। वह सोचता रहा। सबने उसके साथ होली खेली। वह नहीं खेला। संकोच में नहीं खेल पाया। होली फिर आई और उससे मुलाकात भी हुई। कोई फायदा नहीं था। अमित और वो एक ही ऑफिस में थे। लेकिन होली के ऐन पहले वह घर जा चुकी थी। इस बार भी अमित की अधूरी आस अधूरी रह गई। आज फिर रंगों का त्यौहार है। वह आज भी उसके साथ रंगों का त्यौहार मनाना चाहता है। इस शहर में पानी बचाने के लिए आंदोलन चल रहे हैं। हर कोई सूखी होली की बात कर रहा है। ताकि