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Showing posts from February, 2008

आज मैं कुछ भी नहीं कहूंगा

आज मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। बस आप इसे देखें और अपनी प्रतिक्रिया दें

अजी एक नजर इधर भी

पिछले दिनों हमारी एक मित्र ने हमें एक ईमेल भेजा। इसमें किसी ब्‍लॉग का लिंक था लेकिन जब लिंक खोला तो इसमें कुछ शानदार देखने को मिला। बस आपको करना यह है कि नीचे जो चित्र है उसे बड़े ध्‍यान से देखें। बस देखते रहिए। चाहे तो आप कमेंट भी कर सकते हैं।

ये है मुंबई लोकल मेरी जान

मुंबई मेरा दूसरा प्‍यार है। पहले प्‍यार के बारें में बात न करें तो ही ज्‍यादा अच्‍छा है। मुंबई ने मुझे बहुत कुछ दिया है कम कीमत पर। खैर बातें तो होती होंगी। सबसे पहले खास बात। मुंबई की जीवन रेखा यानि मुंबई लोकल के अपने अनुभव को मैने शब्‍दों में बांधने का प्रयास किया। हालांकि यह बहुत मुश्किल काम था। फिर भी किया। जयपुर के डेली न्‍यूज में यह अनुभव प्रकाशित हुआ। पढ़कर जरा बताएं कि क्‍या खामियां रह गई हैं। आशीष महर्षि रेलवे स्‍टेशन पर भागमभाग मची हुई है। जिसे देखो वही भागा जा रहा है। कोई रुकने का नाम नहीं ले रहा है। स्‍टेशन खचाखच भरा हुआ। लड़कियों से लेकर बुजुर्ग तक भागे जा रहे हैं। सबको चिंता बस इस बात की है कि उनकी लोकल न छूट जाए। हालांकि यहां हर पांच मिनट में दूसरी लोकल है लेकिन इसके बावजूद लोग भाग रहे हैं। सुबह से लेकर देर रात तक मुंबई के तमाम स्‍टेशनों पर पैर रखने की जगह नहीं होती है। यह तो एक मात्र झलक है मुंबई की लोकल ट्रेन और इससे जुड़े लोगों की। मुंबई लोकल को शब्‍दों से बांधने का प्रयास नहीं किया जा सकता है। यह एक ऐसा अनुभव है जिसके लिए आपको खुद मुंबई आना होगा और लोकल में सफर करना

गुलाबी नगर का वो कॉफी हाउस

शहर के उस नामचीन कॉफी हाऊस में आज थोड़ी खामोशी फैली हुई थी। ठंड के दिनों में गरमा गरम कॉफी के साथ नई किताबों को खोजते कई जोड़े दिन में कम से कम एक बार तो उधर से गुजर ही जाते थे। लेकिन आज माहौल थोड़ा बदला बदला था। आज पूरे कॉफी हाऊस में एक केवल दो ही लोग थे। एक उस कॉफी हाऊस का मालिक अमित और दूसरा एक कस्‍टमर, जो कि सबसे कोने वाले सीट पर बैठ कर गरमा गरम कॉफी के साथ कोई किताब पढ़ रहा था। आज शाम कुछ अधिक ही ठंड़ी थी। लेकिन अंदर का माहौल पूरी तरह शांत और बड़ा सकून देने वाला था। गुलाबी नगर में आज से करीब बारह साल पहले यह कॉफी हाऊस खुला था। कॉफी हाऊस का मालिक अमित एक बड़े समाचार पत्र में स्‍थानीय संपादक है। दिन में एक बार अमित अपनी बेटी के संग जरुर अपने कॉफी हाऊस को देखने आ जाया करता है। बाकी समय कॉफी हाऊस का मैनेजर जॉन ही इसे संभालता है। दूसरी ओर, आज न जाने क्‍यों अमित का मन अपने ऑफिस में नहीं लग रहा था और उसने कॉफी हाऊस की ओर ही जाना बेहतर समझा। ऑफिस से निकलते हुए आज कई सालों बाद वो पुरानी बातें याद आ रही थी कि अब उसके दिमाग में पहली बार इस कॉफी हाऊस को बनाने का प्‍लान दिमाग में आया था। गाड़

बोधिसत्‍व जी आप अकेले नहीं हैं

हम सब की हालत ऐसी ही है बोधिसत्‍व मुझसे उम्र में चौदह साल बढ़े हैं। लेकिन उन्‍होने आज की पोस्‍ट में कुछ ऐसी बातें लिख दीं, जिससे मुझे भी थोड़ी निराशा हो रही है। और इसे मानने में मुझे कोई एतराज नहीं है। उनकी पोस्‍ट पढ़ने के बाद आज फिर से जेहन में वो सभी पुरानी बातें उभर गईं जिससे मैं भूल चुका था। कॉलेज में मेरे कई अच्‍छे दोस्‍त थे और इसमें कुछ आज भी हैं। लेकिन उसी कॉलेज में कुछ ऐसे लोग भी थे जिनसे मेरी या कहें उनकी मुझसे नहीं बनती थी। क्‍यों नहीं बनती थी, इसका जवाब आज तक मेरे पास नहीं है। ऐसे ही मुंबई जब आया तो ऑफिस में भी कुछ गड़बढ़ हुई। जो मेरे सबसे प्रिय दोस्‍त थे वही मेरे दुश्‍मन बन गए। उन्‍हे लगने लगा कि मै बॉस का प्रिय हूं और मेरी वजह से उनके खास दोस्‍त की जॉब नहीं लग पाई। उनको लगता था कि मैं नहीं चाहता कि उनके दोस्‍त को जॉब मिले। समय बितता गया। गलतफहमियां बनती और मिटती गईं। कुछ पल साथ रहे लेकिन उनका यहां से छोड़कर जाना फिर से गलतफहमियों को बढ़ा दिया। अब वो मुझसे बात नहीं करते हैं जबकि कल तक उनका दावा था कि वो मेरे सबसे अच्‍छे दोस्‍त हैं। मुझे आज भी वो दोस्‍त लगते हैं लेकिन कुछ

बेटी का जन्‍मदिन

उसके चले जाने के बाद मैं थोड़ा निराश था। मुझे इस बात का सपने में भी कभी ख्‍याल नहीं आया कि वो ऐसे अचानक मुझे छोड़कर चली जाएगी। शादी के केवल चार साल ही तो हुए थे। लेकिन वो मुझे और हमारी दो साल की बच्‍ची को हमेशा के लिए छोड़कर जा चुकी थी। बहुत तनाव और पीड़ा के दिन थे वो। शुरुआत में मुझे लगा कि वो वापस आ जाएगी। दूसरे पतियों की तरह मैं भी पत्नियों को अपनी जायदाद समझता था। बात सिर्फ जायदाद तक सीमित नहीं थी। मैंने उसका विश्‍वास भी तोड़ा था। शादी के बाद भी मेरा परुनिशा से मिलना जारी रहा। जिसकी भनक मिलते ही वो मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली गई। मैने कई बार उससे बात भी करनी चाही लेकिन कोई फायदा नहीं। वो बहुत नाराज थी। उसके जाने के बाद मैने भी परुनिशा से मिलना छोड़ दिया और परुनिशा ने भी कहीं और निकाह कर लिया था। अब मैं बिल्‍कुल तन्‍हा और अकेला था। मेरे पास अब सिर्फ मेरी बेटी थी। जिसे मुझे पालना था। मेरी बेटी एकदम अपनी मां पर गई थी। वैसे ही नाक नक्‍शे, वहीं आंखे और वैसे ही मुस्‍कुराना। आज मेरी बेटी के साथ मेरी बीवी का भी जन्‍मदिन है। मेरी बेटी आज पंद्रह साल की हो गई है। देर तक सोने वाला मैं आज सबसे

भरोसे पर टिकती है दुनिया

भरोसे पर टिकती है दुनिया और दुनिया टिकती है दोस्‍ती पर भरोसे से ही होते हैं दुनिया के सारे काम प्‍यार भरोसे की है देन भरोसे पर कायम है इंसानियत सब की जड़ में है भरोसे की नींव जब टूटता है भरोसा हिल जाती है सारी नींवे दोस्‍ती दुश्‍मनी में बदलती है जिंदगी भर साथ चलने वाला बन जाता है आपकी जिंदगी का दुश्‍मन ऐसे में बस न टूटे भरोसा बनी रहे सबकी आशा

इसे मोहब्‍बत कहें या मुंबई

यह लेख राजस्‍थान पत्रिका समूह के डेली न्‍यूज समाचार पत्र में रविवार को प्रकाशित हुआ है। अब आप इसे पढ़कर अपनी राय जरुर दें ताकि यदि कुछ गलती हो तो सुधारा जाए। हालांकि मैने भरसक प्रयास किया है कि इस लेख को दिल से लिख सकूं कभी कभी कुछ चीजों को शब्‍दों में नहीं बांधा जा सकता है। इन्‍हें केवल महसूस किया जा सकता है। इश्‍क भी उन्‍हीं चीजों में शुमार है जिसे शब्‍दों में बांधना कोई आसान काम नहीं है और जब बात मुंबई के प्‍यार की हो तो मामला थोड़ा और पेचिदा हो जाता है। हिंदुस्‍तान की अधिकतर फिल्‍मों की शुरुआत प्‍यार से शुरु होती मुंबई डायरी, डेली न्‍यूज, लेखहै और प्‍यार पर ही खत्‍म हो जाती है। जाहिर है ऐसे में फिल्‍मों के शहर मुंबई का प्‍यार तो खास होगा ही। मुंबई में प्रेमी अपने प्‍यार के इजहार के लिए किसी खास दिन का इंतजार नहीं करते हैं लेकिन फिर भी 14 फरवरी या वैलेंटाइन डे का दिन मुंबईकर, खासतौर पर यहां के युवाओं के लिए खास मायने रखता है। इस दिन पूरे मुंबई पर एक ही रंग होता है और वो रंग होता है इश्‍क का। मुंबई के हाइवे से लेकर समुंद्र तट तक, चारों और सिर्फ और सिर्फ इश्‍क का रंग होता है। मुंबईक

उस मोड़ पर वो फिर जुदा हुए

वो मिले और कुछ पल साथ गुजारे। लेकिन वो दोनों एक ऐसे मोड़ पर जुदा हुए, जहां से न उसने मुड़ कर देखा और न देखने की कोशिश भी की। लेकिन एक वो था जो बार बार उस मोड़ से मुड़कर उसे जाता हुआ देख रहा था। उसके दिल में आया उसे वो रोके लेकिन उसे पता था कि वो नहीं रूकेगी। आंखों के साथ दिल भी भर आया था उसे जाता देखकर। कुछ नहीं कर पाया वो और वो चली जा रही थी और चली गई। ऐसा न जाने कितनी बार हुआ है कि सर्द मौसम से लेकर तपतपाती गर्मी में उसे कितने लोगों ने ऐसे ही मोड़ पर छोड़ कर गए हैं। और वो बार बार उस मोड़ पर उनका इंतजार करता है। लेकिन इस बार उसे कुछ अधिक ही तकलीफ हो रही थी। उसके जाने के साथ एक बार फिर वो अकेला हो गया था। दिल में कई अधूरी हसरते पाले वो इस शहर में आया था लेकिन हसरतें फिर अधूरी ही रहीं। उसने सोचा था, उससे मिलेगा तो दिल की सब बात जुबां पर रख देगा लेकिन उसके सामने आते ही वो उसकी गहरी आंखों में डूबता गया और जब तक संभलता, काफी देर हो चुकी थी। वो उस मोड़ पर उसे आगे अकेला जाने के लिए छोड़कर चली गई थी।

भोपाल जा रहा हूं

एक दिन की व्‍यक्तिगत यात्रा पर कल भोपाल के लिए निकल रहा हूं। वापसी रविवार की है। भोपाल मेरे मनपसंद शहरों में से एक है। यहा मैने अपने जीवन के दो साल बिताते हैं। शहर के सात नंबर पर हमारा कालेज हुआ करता था। दिनभर और रातों में भी हम दोस्‍तों की मंडली वहां आसपास घूमा करते थे। कोशिश रहेगी कि इस एक दिन के ठहराव में कम से कम कुछ पल उसी कैंपस के आसपास गुजारा जाए जहां से मैं पढ़कर आज पत्रक‍ारिता कर पा रहा हूं।

मुंबई और मेरे दिल की बात

(मुंबई में उत्‍तर भारतीयों के साथ जो हो रहा है उसे कोई भी जायज नहीं ठहरा सकता है। यदि मैं उत्‍तर भारतीय नहीं होता तब भी राज ठाकरे एंड पार्टी को सही नहीं ठहराता। मुंबई में जो कुछ घट रहा है उसे लेकर मन में जो विचार है आए उसे मैंने जयपुर से प्रकाशित डेली न्‍यूज के लिए लिख दिया जो आज प्रकाशित हुआ। लेख को पढि़ए और तय किजीए कौन सही है और कौन गलत। आशीष महर्षि) मुंबई शहर ने कई हादसे देखें हैं इसीलिए इसे हादसों का शहर कहा जाता है। कभी यह शहर दंगों की आग में जलता है तो कभी बम विस्‍फोट से इस शहर के तानेबाने को बिगाड़ने का प्रयास किया जाता है। बरसात के दिनों में प्रकृति के कहर के रुप में यहां बाढ़ का प्रकोप देखने को मिलता है। लेकिन इन सब हादसों के बाद मुंबईकर यानि मुंबई के लोग मिलकर फिर से शहर को पहले जैसा शांति प्रिय और जिंदादिल बना देते हैं। जब बात मुंबईकर की होती है तो उसमें मुंबई के मराठी ही नहीं बल्कि दूर दराज से आए लोग भी शामिल हैं। मुंबईकर उप्र के दूर दराज गांव को कोई लड़का भी हो सकता है और दक्षिण भारत की कोई महिला भी। बशर्ते हो मुंबई में हो और मुंबई से प्‍यार करता हो। मुंबईकर का एक ही अर्थ

पीवीआर की दो टिकट और मैं

वाकई मुंबई की बात निराली है। आज सुबह ऑफिस में हिंदुस्‍तान लीवर की ओर से एक कॉफी का एक फ्री स्‍टॉल लगा था जिसमें कोई भी अपनी मनपसंद कॉफी की चुस्‍की ले सकता था। मैने भी ली और जीत लिया एक ईनाम। ईनाम है पीवीआर में 14 फरवरी को स्‍पेशल फिल्‍म के लिए दो टिकट। अब सोच रहा हूं कि इन टिकटों का क्‍या करूं। 14 फरवरी को गुरुवार है और ऑफिस में न्‍यूज के साथ भी समय बिताना है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्‍या किया जाए। मुझे पता है कि कईयों के लिए यह टिकट खास मायने रखता होगा लेकिन मैं क्‍या करुं इन टिकटों का। जो कपल्‍स बनने लायक है वो थो फिलहाल जयपुर में है। खैर हिंदुस्‍तान की अधिकतर फिल्‍मों की शुरुआत प्‍यार से शुरु होती है और प्‍यार पर ही खत्‍म हो जाती है। जाहिर है ऐसे में फिल्‍मों के शहर मुंबई का प्‍यार तो खास होगा ही। मुंबई में प्रेमी अपने प्‍यार के इजहार के लिए किसी खास दिन का इंतजार नहीं करते हैं लेकिन फिर भी 14 फरवरी या वैलेंटाइन डे का दिन मुंबईकर, खासतौर पर यहां के युवाओं के लिए खास मायने रखता है। इस दिन पूरे मुंबई पर एक ही रंग होता है और वो रंग होता है इश्‍क का। मुंबई के हाइवे से लेकर समुंद्र तट

वो क्‍यूं बेवफा हो गई

अमित पिछले कई दिनों में गांधी होने के मायने को समझने का प्रयास कर रहा है। गांधी की आत्‍मकथा को पढ़ा। गांधी को समझने में उसका व्‍यक्तिगत हित छुपा हुआ है। हर इंसान हमेशा अपने तो दूसरे से बेहतर समझता है। हर इंसान को लगता है कि वो जो बोल रहा है, सोच रहा है, वही सही है। इंसान चाहता है कि उसकी प्रतिष्‍ठा हो। लोग उसकी इज्‍जत करें। उसकी बातों से किसी को तकलीफ न हो। लोग उसे हमेशा एक अच्‍छे इंसान के रुप में पहचाने। अमित भी कईयों की तरह एक बे‍हतर इंसान बनने का प्रयास कर रहा है। लेकिन कहते हैं न कि हर आदमी ने कई आदमी बसते हैं। शुरु से ही अमित का मानना था कि लोगों को साथ लेकर चला जाए। लेकिन यह संभव होता नहीं दिख रहा है। किसी एक को साथ लेने की कोशिश में दूसरे साथी छूट जाते हैं। जिन्‍हें अमित छोड़ना नहीं चाहता है। दोस्‍तों से गलतफहमी होती है तो उसे दूर करने का प्रयास करता है लेकिन दूसरे उसे उसकी कमजोरी समझकर उसका उपहास उड़ाते हैं। लेकिन वो ऐसा नहीं है। उसे फर्क नहीं पड़ता है कि लोग उसके बारें में क्‍या सोचते हैं। लेकिन सही मायने में पड़ता भी है। कामिनी का ऐसे छोड़कर चले जाना उसे बड़ा सता रहा है और अब