आईए हम मिलकर पत्रकार पत्रकार खेलें। जिसमें कुछ पत्रकार का दंभ भरने वाले होंगे तो कुछ दलाली के सिरमौर होंगे। एक बात तो तय है कि इस खेल में दलालों की संख्या रिकार्ड स्तर पर जा सकती है। और जो बेचारे वाकई में पत्रकार होंगे, उनकी संख्या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। पत्रकारिता में घुसे थे कि कुछ समाज और देश के लिए किया जा सकेगा। लेकिन अब लग रहा है कि दलाली के सिवाय कुछ भी यहां नहीं है। चाहे वह आजमगढ़ जैसा छोटा सा शहर हो या फिर मुंबई जैसा महानगर, एक बात दोनों ही जगह सामान्य है। वो यह कि इन दोनों जगह दलालों की कमी नहीं है। कुछेक सौ एक नोट में बिक जाते हैं तो कुछ हवाई टिकट पा कर बिक जाते हैं। बड़ी उल्झन में हूं। लगता है कि कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया। दोस्तों से लेकर पुराने पत्रकारों से बात करता हूं तो थोड़ी आशा की किरण नजर आती है। लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्हीं के बीच में से रास्ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।
समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस शहर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्यार है। और किसी भी प्यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा
Comments
बढ़िया अनुभव बताया आपने।