Skip to main content

नादान परिंदे घर आ जा..घर आ जा..घर आ जा..

रॉकस्टार फिल्म देखने के बाद आपका भी दिल कुछ यूं ही गुनगुनाने लगे तो इसे रोकिए मत। गुनगुनाने दीजिएगा बरसों बाद। नादान परिंदे घर आ जा..घर आ जा..घर आ जा..। लेकिन कुछ परिंदे जब एक बार उड़ जाते हैं तो कभी नहीं आते। वे कहीं और अपना बसेरा बना लेते हैं। या कहें कि मजबूरी होती है एक अदद आशियाने की। कभी परिंदे इस लिए उड़ जाते हैं, क्योंकि जिंदगी की जंग में हार जाते हैं। वक्त की मार से डर जाते हैं। या फिर किस्मत उन्हें किसी और जगह ले जाती है। कुछ ऐसा ही जार्डन और हीर के संग भी होता है। दोनों रॉकस्टॉर फिल्म के मुख्य बिंदु हैं। जार्डन और हीर ही क्यों, ऐसा तो हर उस शख्स के साथ होता है जो अपनी पाक मोहब्बत से बिछड़ जाते हैं। वैसे अनगिनत जार्डन और हीर हमारे आसपास भी मौजूद हैं। बस हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। खैर इस फिल्म में जिस तरह से शहरी युवा को दिखाया गया है, वह बहस के जाल में उलझ सकता है। क्या आज के शहरी युवा को इस बात से कोई फक्र्र नहीं पड़ता है कि उसका प्यार शादीशुदा है? वह अपनी दिल की बात जुबान तक लाने में उसके सामने कोई बंधन नहीं आता है। महिलाओं ने क्या अपने जिस्म से इतनी आजादी पा ली हैं कि उन्हें इस बात से कोई फक्र्र नहीं पड़ता है कि वे शादीशुदा हैं। क्या हिंदुस्तान बदल रहा है? हिंदुस्तान की आवाम का एक बड़ा तबका इस फिल्म को नकार सकता है।

टूटे दिल का जिस्मानी प्यार

रॉक स्टार हर उस टूटे दिल की कहानी है, जो मोहब्बत तो करते हैं लेकिन वक्त की मार के आगे हार जाते हैं। कहते हैं कि प्यार करना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है अपने प्यार के साथ वफादारी। फिल्म को देखते हुए आप अतीत में जा सकते हैं। आप अपनी उस प्रेमिका को याद कर सकते हैं, जो आज आपके साथ नहीं है। कुछ दिन, कुछ महीने या फिर कुछ साल एक-दूजे के साथ रहकर आप अलग हो चुके हैं। जब आपको अपनी गलती का अहसास हुआ। दिल में अजीब सी कशमश हुई तो पता चला कि आप उसके बिना रह ही नहीं सकते हैं। आप फिर से लग जाते हैं अपने खोए प्यार को पाने में। आप फिर से अपनी मोहब्बत के साथ जिंदगी बसर करना चाहते हैं। लेकिन बहुत देर हो गई। आपके धोखे से टूटकर, बुरी तरह टूटकर, उसने किसी और का कंधा संभाल लिया। वह सही है। आप गलत हैं। वक्त की मार के आगे आपका प्यार हार गया। महीनों की तड़प के बाद आपको अहसास हुआ कि आप उसे पा नहीं सके। गलती आपने की है। जिंदगीभर आपको तड़पना है। हर बार वह आपके सामने आती है और आप अंदर तक हिल जाते हैं। क्योंकि आप आज भी उसे चाहते हैं। लेकिन आपके अंदर इतना साहस नहीं है कि उसे कह सकें कि मैं तुमसे प्यार करता हूं। वह हक आप खो चुके हैं। लेकिन जार्डन ऐसा नहीं है। हीर की शादी के बाद उसे अहसास होता है कि वह उससे प्यार करता है। वह सभी बंधनों से आजाद होकर प्राग पहुंचता है। वह प्राग जो उसके प्यार का शहर है। वह प्राग जिसकी खूबसूरत गलियों में वह भटकता है। जिंदगी कभी न कभी हमें भी उस शहर में ले जाती है, जहां से आपका प्यार परवान चढ़ा था। किसी शहर में आपको जाकर लगता है। वह इसी शहर से आती है। यह शहर दुनिया के किसी भी कोने में हो सकता है। पहाड़ों के किनारे हो सकता है। नदी के किनारे बसा हो सकता है।

खुद के अंदर का कश्मीर

बरसों बाद किसी फिल्म में कश्मीर की खूबसूरती और नजाकत को बड़े परदे पर फिल्माया गया है। हम सब के भीतर कहीं न कहीं एक कश्मीर बसा है। जो उस कश्मीर की तरह बड़ा खूबसूरत है। किसी जन्नत से कम नहीं है। लेकिन कहीं खो सा गया है। रॉक स्टार आपके अंदर के कश्मीर को ढूंढ कर वापस आपको देखी है। बर्फ से ढंके खूबसूरत लेकिन विशालकाय पहाड़ आपको बार-बार बुलाते हैं। फिल्म खत्म होने से पहले आप खुद से कह सकते हैं कि बहुत हुआ यार..बैग पैक किया जाए और चलें कश्मीर की ओर। ऐसा ही कुछ प्राग के बारे में भी सोच सकते हैं। यूरोप की इस खूबसूरती को लेकर भी ऐसा ही कुछ जेहन में आ सकता है।

फिल्म वर्तमान में शुरू होती और एक झटके से अतीत में चली जाती है। प्राग से दिल्ली और कश्मीर चली जाती है। फिल्म में जार्डन के बहाने छोटे शहरों से बड़े ख्वाब लेकर पहुंचे युवाओं की कहानी कही गई है। जो ओल्ड फैशन में जीते हैं। मेहनत करते हैं। सपने देखते हैं। लेकिन कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं। बस अपने ख्वाब के साथ चलते जाते हैं..यह युवा उप्र, बिहार, राजस्थान, हरियाणा या फिर किसी दूसरे छोटे राज्य, कहीं से भी महानगरों में पहुंच सकता है। फिल्म में एक डॉयलाग है..जमुनापार फैशन। इस शब्द को वही समझ सकता है जो दिल्ली को समझता है। जमुना पार शब्द कुछ ऐसा ही है, जैसा मुंबई में बिहार और उप्र के लोगों के लिए या फिर अलीबाग के लोगों के लिए कहा जाता है। फिल्म में एक डॉयलाग है - टूटे दिल से संगीत निकलता है। बिलकुल सही है। जब तक आपका दिल नहीं टूटता है, तब तक आपके अंदर का मैं बाहर नहीं आता है। यह मैं कोई कलाकार हो सकता है, लेखक हो सकता है, कवि हो सकता है..कुछ भी हो सकता है। जब आप दर्द में होते हैं तो आपके साथ आपका दिल होता है। चीजों में गहराई आती है। हर काम दिल की गहराई से करते हैं।

नादान परिंदे..घर आ जा..

सुन लो मेरी अर्ज..घर आ जा..इस गाने में अजीब कशिश है। जार्डन भले ही इस गाने में परिंदे का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन वह उस शख्स को बुला रहा है, जो चली गई है। लेकिन वह नहीं आएगी। इस फिल्म को देखने के बाद यही लगा कि जब आपका प्यार आपसे दूर चला जाता है तब आपको उसके होने का अहसास शिद्दत से होता है। जिंदगी में हम ऐसी गलतियां करते हैं और फिर पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता। जार्डन ने भी यही किया। यदि वह अपने प्यार को समझ लेता और शादी से पहले दोनों एक हो जाते तो शायद फिल्म की कहानी कुछ और हो जाती। लेकिन जिस उम्र में जार्डन था, उस उम्र में हम सिर्फ देह की भाषा समझते हैं। फिल्म में हीर जार्डन से अधिक समझदार, परिपक्व है और अपने प्यार को समझती है। हीर के बहाने निर्देशक ने हिंदुस्तान की उन तमाम लड़कियां की दबी हुई भावनाओं को जगाने का काम किया है जो वे सामाजिक, पारिवारिक बंधनों के कारण खुल कर व्यक्त नहीं कर पाती है। फिल्म की हीर जंगली जवानी देखती है, देशी दारू पीती है, गंदे पब में जाती है, मर्दो को कपड़े उतारे देख उछलती है। यह सिर्फ हीर नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की वह तमाम महिलाएं करना चाहती हैं जिन्हें बचपन से नहीं बल्कि सदियों से कुचला गया।

सिनेमा हॉल से निकलने के बाद काफी देर तक सोचता रहा। ड्राइविंग सीट पर दोस्त था। गाड़ी के शीशे ऊपर चढ़ाए और बाहर झांकते हुए उन सड़कों पर नजर गड़ा दी, जहां कभी, आज भी कई जोड़े अपनी जवां हरसतों के साथ चहलकदमी करते हैं। मैं जोर-जोर से चिल्लाना चाह रहा था--क्यूं बांटे मुझे, क्यूं कांटे मुझे..लेकिन मैं जार्डन नहीं हूं। मैं नहीं चिल्ला पाया। लेकिन मेरा दिल जोर जोर से चिल्ला रहा।

Comments

Popular posts from this blog

बाघों की मौत के लिए फिर मोदी होंगे जिम्मेदार?

आशीष महर्षि  सतपुड़ा से लेकर रणथंभौर के जंगलों से बुरी खबर आ रही है। आखिर जिस बात का डर था, वही हुआ। इतिहास में पहली बार मानसून में भी बाघों के घरों में इंसान टूरिस्ट के रुप में दखल देंगे। ये सब सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने के लिए सरकारें कर रही हैं। मप्र से लेकर राजस्थान तक की भाजपा सरकार जंगलों से ज्यादा से ज्यादा कमाई करना चाहती है। इन्हें न तो जंगलों की चिंता है और न ही बाघ की। खबर है कि रणथंभौर के नेशनल पार्क को अब साल भर के लिए खोल दिया जाएगा। इसी तरह सतपुड़ा के जंगलों में स्थित मड़ई में मानसून में भी बफर जोन में टूरिस्ट जा सकेंगे।  जब राजस्थान के ही सरिस्का से बाघों के पूरी तरह गायब होने की खबर आई थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरिस्का पहुंच गए थे। लेकिन क्या आपको याद है कि देश के वजीरेआजम मोदी या राजस्थान की मुखिया वसुंधरा या फिर मप्र के सीएम शिवराज ने कभी भी बाघों के लिए दो शब्द भी बोला हो? लेकिन उनकी सरकारें लगातार एक के बाद एक ऐसे फैसले करती जा रही हैं, जिससे बाघों के अस्तिव के सामने खतरा मंडरा रहा है। चूंकि सरकारें आंकड़ों की बाजीगरी में उ...

बेनामी जी आपके लिए

गुजरात में अगले महीने चुनाव है और इसी के साथ भगवा नेकर पहनकर कई सारे लोग बेनामी नाम से ब्लॉग की दुनिया में हंगामा बरपा रहे हैं. एक ऐसे ही बेनामी से मेरा भी पाला पड़ गया. मैं पूरा प्रयास करता हूँ कि जहाँ तक हो इन डरपोक और कायर लोगों से बचा जाए. सुनील ने मोदी और करण थापर को लेकर एक पोस्ट डाल दी और मैं उस पर अपनी राय, बस फिर क्या था. कूद पड़े एक साहेब भगवा नेकर पहन कर बेनामी नाम से. भाई साहब में इतना सा साहस नहीं कि अपने नाम से कुछ लिख सकें. और मुझे ही एक टुच्चे टाईप पत्रकार कह दिया. मन में था कि जवाब नहीं देना है लेकिन साथियों ने कहा कि ऐसे लोगों का जवाब देना जरूरी है. वरना ये लोग फिर बेनामी नाम से उल्टा सुलटा कहेंगे. सबसे पहले बेनामी वाले भाई साहब कि राय.... अपने चैनल के नंगेपन की बात नहीं करेंगे? गाँव के एक लड़के के अन्दर अमेरिकन वैज्ञानिक की आत्मा की कहानी....भूल गए?....चार साल की एक बच्ची के अन्दर कल्पना चावला की आत्मा...भूल गए?...उमा खुराना...भूल गए?....भूत-प्रेत की कहानियाँ...भूल गए?... सीएनएन आपका चैनल है!....आशीष का नाम नहीं सुना भाई हमने कभी...टीवी १८ के बोर्ड में हैं आप?...कौन सा...

मेरे लिए पत्रकारिता की पाठशाला हैं पी साईनाथ

देश के जाने माने पत्रकार पी साईनाथ को मैग्‍ससे पुरस्‍कार मिलना यह स‍ाबित करता है कि देश में आज भी अच्‍छे पत्रकारों की जरुरत है। वरना वैश्विककरण और बाजारु पत्रकारिता में अच्‍छी आवाज की कमी काफी खलती है। लेकिन साईनाथ जी को पुरस्‍कार मिलना एक सार्थक कदम है। देश में कई सालों बाद किसी पत्रकार को यह पुरस्‍कार मिला है। साईनाथ जी से मेरे पहली मुलाकात उस वक्‍त हुई थी जब मैं जयपुर में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहा था। पढ़ाई के अलावा मैं वहां के कई जनआंदोलन से भी जुड़ा था। पी साईनाथ्‍ा जी भी उसी दौरान जयपुर आए हुए थे। कई दिनों तक हम लोग साथ थे। उस दौरान काफी कुछ सीखने को मिला था उनसे। मुझे याद है कि मै और मेरे एक दोस्‍त ने साईनाथ जी को राजधानी के युवा पत्रकारों से मिलाने के लिए प्रेस क्‍लब में एक बैठक करना चाह रहे थे। लेकिन इसे जयपुर का दुभाग्‍य ही कहेंगे कि वहां के पत्रकारों की आपसी राजनीति के कारण हमें प्रेस क्‍लब नहीं मिला। लेकिन हम सबने बैठक की। प्रेस क्‍लब के पास ही एक सेंट्रल पार्क है जहां हम लोग काफी देर तक देश विदेश के मुददों से लेकर पत्रकारिता के भविष्‍य तक पर बतियाते रहे। उस समय साईनाथ किसी स...