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Showing posts from December, 2007

पाश की दो कविताएं

पाश से मैं पहली बार उस समय रुबरु हुआ था जब राजस्‍थान के एक आंदोलन के दौरान उनकी कुछ लाइनें आंखों के सामने से गुजरी थी, इसके बाद बस फिर क्‍या था। मैं और पाश। कई दिनों तक पाश की कविता खोज खोज कर पढ़ा और आज कहा सकता हूं कि बाबा नागार्जुन के बाद पाश ही मुझे सबसे पास दिखते हैं। पेश है पाश की दो कविताएं 1 मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी , लोभ की मुठ्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से मर जाना न होना तड़प का सब सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आ जाना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। 2 जीने का यही सलीका होता है प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नहीं जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया जिस्मों का रिश्ता समझ सकना- ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना सहम को चीर कर मिलना और विदा होना बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त मैं अब विदा होता हूं तू भूल जाना मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया तेरे नक्शों की धार बांधने

ई है मुंबई नगरिया तू देख बबुआ

बड़ा अजीब शहर है यह। यहां आप सरदार को भीख मांगते देखते सकते हैं। यहां आप किसी मारवाडी को जूते पालिस करते देख सकते हैं। फुटपाथ पर दुकान लगाने वाला आपसे अधिक कमाता हुआ दिख जाएगा इस शहर में। जी हां मैं मुंबई की बात कर रहा हूं। वाकई बड़ा अजीब शहर है मुंबई। लाखों की तादाद में हर रोज यहां के कुर्ला, दादर और मुंबई सेंट्रल जैसे रेलवे स्‍टेशन पर लोग अपने सपनों के साथ उतरते है। कुछ लोगों के सपने सच में बदलते हैं यहां और कुछ के इस शहर के भीड़भाड़ में गुम हो जाते हैं। इसी के साथ हर दिन न जाने यहां की भीड़ में गुम भी हो जाते हैं। इसके बावजूद इस शहर का एक अलग नशा है। दंगों, बाढ़ और बम विस्‍फोटों के बाद यह शहर फिर से और मजबूत होकर उभरता है। दहशतगर्द भी परेशान होते हैं इस शहर को निशाना बनाकर। लेकिन यह शहर कभी सोता ही नहीं है। हमेशा जिंदा रहा है मुंबई। और लोगों को जिंदादिली से रहना सिखाता है मुबई। आधी से अधिक आबादी झुग्‍गी झोपड़ी में रहती है लेकिन यहां की चमक के आगे ये लोग बौने साबित होते हैं। देखने वालों को यहां की रंगीन रातें और इस शहर की चमक दमक ही दिखती है। लेकिन रेलवे लाइन के किनारे हजारों की तादा

एक प्रेम कथा --वह खूबसूरत शाम उसके जीवन की सबसे भयावह शाम में बदल चुकी थी

उम्र बढ़ने के साथ कुछ पुराने रिश्‍तें कमजोर पड़ते जाते हैं और इसके साथ नए रिश्‍तों की नींव पड़ती जाती है। उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। वह जीवन के उस पड़ाव पर खड़ा था जहां से वह अपनी खुद की नजरों से दुनिया देखना चाहता था। अब वह जवान हो रहा था। या कहें हो चुका था। इन्‍हीं नए रिश्‍तों में उसका पहला रिश्‍ता पाखी से बना और शायद यह अंतिम भी था। दोनों एक ही मीडिया संस्‍थान में काम करते थे। घर से दूर। दोनों के अरमान एक थे बस रास्‍ते जुदा। वह समय के साथ चलना चाहता था और पाखी समय से आगे। लेकिन मंजिल एक थी। शहर की सबसे खूबसूरत शाम थी वह लेकिन उसे नहीं मालूम था कि वह आज के बाद कभी भी उससे नहीं मिलने वाली थी। पाखी-अमित मैं यह शहर छोड़कर जा रही हूं। लेकिन क्‍यूं और यह अचानक कैसे ? बस मुझे जाना पड़ रहा है। और प्‍लीज कुछ पूछना मत। यह अंतिम लाईने थी पाखी थी। और वह खूबसूरत शाम उसके जीवन की सबसे भयावह शाम में बदल चुकी थी। लेकिन कहते हैं ना कि समय का मरहम बड़े से बड़े रोग को मिटा देता है। उसके साथ भी ऐसा ही हुआ। वह पाखी को भूल चुका था। समय बीतता गया और पुराने घाव खत्‍म होते गए। अचानक एक दिन उसे एक कॉ

वाह वाह बनारस

राजस्थान पत्रिका समूह के डेली न्‍यूज में पिछले ही रविवार को बनारस को लेकर मेरा एक लेख छपा है। उम्‍मीद है कि इसे पढ़कर आप अपनी राय से मुझे जरुर अवगत कराएंगे ताकि मैं अपनी लेखनी में कुछ और सुधार कर सकूं । आपकी राय और सुझाव के इंतजार में । आपका आशीष

तुम्‍हें गए कई दिन हो गए

तुम्‍हें गए कई दिन हो गए फिर भी कहीं आसपास ही लगती हो आज भी तुमसे मिलकर दिल की बात कहना चाहता हूं फिर डर लगता है कहीं तुम बुरा न मान जाओ इसीलिए चुप रहता हूं कभी हो तो ख्‍वाब में आना दो चार दिल की बातें करेंगे कभी हसेंगे तो कभी रोएंगे मैंने तुम्‍हें चाहा है पागलों की तरह फिर भी तुम बेवफा हो गए तुम्‍हें गए कई दिन हो गए

शापिंग मॉल में रिक्‍शा वाला

शापिंग मॉल कल्‍चर भी अजीब होता है। आप सोच रहे होंगे कि मैने अजीब शब्‍द का उपयोग क्‍यों किया। लेकिन मैं क्‍या करूं, कल जो देखा उसके बाद अजीब ही शब्‍द सही लग रहा। मॉल कल्‍चर ने जहां छोटे कारोबारियों को धंधें को कम किया है वहीं मल्‍टीनेशलन कंपनियों के अलावा देश की बड़ी कंपनियों की जेब को भर भी रही है। कल मैं शहर के मैग्‍नेट शॉपिंग मॉल में गया तो वहां एक बड़ा अजीब नजारा देखने को मिला जिसने मेरी उस सोच को बदल दिया कि मॉल केवल अमीरों के लिए ही है। कल जब मैं इस मॉल में कुछ खरीददारी कर रहा था तो मुझे एक बंदा मिला जिसने एक मैली सी शर्ट और पैंट पहना हुआ था। पांव में हवाई चप्‍पल। यह देखकर मेरे दिमाग में बस यही आ रहा था क‍ि यह इंसान यहां क्‍या लेने आया है। इसका जवाब मुझे उस वक्‍त मिला जब भुगतान के समय वह लाइन में लगा। उसने एक कपड़े धोने की साबुन और नारियल तेल की सबसे छोटी शीशी खरीदी। बिल करीब 18 रुपए के आसपास था। मैं भी जल्‍दी से भुगतान कर के उसे साथ ही बाहर निकला तो देखते हुए यह महाशय आटो रिक्‍शा चलाते हैं। किसी तरह हिम्‍मत करके मैने उनसे पूछ ही लिया कि आप मॉल में क्‍या केवल यह लेने के लिए आए थे

शानदार लेकिन परेशान है मुंबई की महाकाली गुफा

मुंबई की नाम सुनते ही यदि आपके जेहन में एक ऐसे शहर की छवि उभर कर सामने आती है जो कि अमीरों का एक अत्‍याधुनिक शहर है तो एक बार और सोच लें। जी हां मुंबई में और इस शहर के आसपास कई ऐसे इलाके हैं जो आपकों हजारों साल पहले ले जा सकते हैं। मैंने कभी सोचा नहीं था कि कंक्रीट के इस जंगल में मुझे इतनी शानदार गुफा मिलेगी। लेकिन मिली. जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ मुम्बई के अँधेरी उपनगर में स्थित महा काली गुफा की. चारों और कंक्रीट के जंगल और बीच में यह गुफा. अँधेरी पूर्व से करीब दो किलोमीटर दूर है महाकाली. यह वही गुफा है जिसने संघर्ष के दिनों में विश्‍व विख्‍यात लेखक और गीतकार जावेद अख्‍तर को जगह दी थी। कई रात अख्‍तर साहब ने यहीं बिताई है। महाकाली गुफा के इतिहास की बात करें तो करीब यह दो हजार साल पुरानी बौद्व गुफा है। महाकाली गुफा के बीचोबीच एक शिव मन्दिर है। यहाँ एक विशाल शिवलिंग हैं। लम्बाई करीब आठ फीट। इस शिवलिंग पर मैंने कुछ स्थानीय लोगों को एक का सिक्का चिपकाते देखा. बातचीत में पता चला की कि यहाँ सिक्का चिपकाने से जो भी माँगा जाता हैं, वह मिल जाता हैं. इस मन्दिर के परिसर की दीवार पर कुछ देवी देवता

पुराने सेल फोन से पाई मुक्ति

पुराने सेल फोन से पाई मुक्ति मैने अंतत: अपने एक साल पुराने सेल फोन से छुटकारा पा ही लिया। नोकिया ६०७० अब मेरे पास नहीं है और इसी के साथ सबसे अधिक राहत मेरे ऑ‍‍फ‍िस की लड़कियों को मिली है। सही है न अब मेरे सेल फोन से उनको कोई डर नहीं है। मेरे नए सेल फोन में अब न तो कैमरा है और न म्‍यूजिक प्‍लेयर। मेरा नया सेल का मॉडल न 6030 है। पुराने वाले सेल को मैने अपने ही मोहल्‍ले के एक बंदे को बेच कर गंगा नहा लिया। मुंबई की गरमी उत्‍तर भारत जहां कड़ाके की ठंड से बेहाल है, जबकि मेरा जैसे आम उत्‍तर भारतीय मुंबई की गरमी से। हालांकि सुबह थोड़ी सी ठंड लगती है लेकिन पंखा पिछले दो सालों से बंद नहीं हो पाया है। लोकल में चढ़ने के बाद सुबह की यह ठंड गरमी में बदल कर पूरे शरीर को पसीने से तर बदर कर देती है। लेकिन कोई उपाय नहीं है। जब तक मुंबई में हैं तब है इस लोकल ट्रेन और यहां के सुहावने मौसम से छुटकारा नहीं मिल सकता। क्रिसमस की पार्टी कल ऑ‍‍फिस में क्रिसमस की पार्टी है। कहा गया है कि सबको लाल कपड़े पहन कर आना है ताकि क्रिसमस के रंग में रंगा जाए। तो ऐसे में मुझे घर पर ही रहना अधिक बेहतर लग रहा। लाल कपड़े दे

माँ

वो थोडी बूढी हो गई है। उसकी कमर बढ़ती उम्र के साथ झुक रही है लेकिन उसकी ममता में आज भी कोई कमी नहीं आई है. वो पहले से कहीं ज्यादा ही अपने बच्चों को चाहती है. लेकिन अब वह अपने ही बच्चों के लिए बोझ है. जी हाँ वो और कोई नहीं सिर्फ़ माँ है. यह किसी की भी माँ हो सकती है. बस जरा आस पास देखने की जरुरत है. यदि आप से पूछा जाए कि दुनिया में सबसे पवित्र और सच्चा रिश्ता कौन सा है तो हो सकता है सबके जवाब अलग अलग हों। लेकिन मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता है माँ और संतान का. यदि विश्वास नहीं होता तो अपने आसपास ऐसे लोगों को तलाश करें जिनकी माँ नहीं है और फिर उनसे इस रिश्ते के बारें में पूछें. मक्सिम ग्रोकी की माँ किताब यदि आपने पढ़ा है तो ग्रोकी की माँ जाने कितनी माँ हमारे आस पास ही मिल जाएँगी. बस महसूस करने की जरुरत है। यदि मैं अपनी बात करूँ तो मुझे दुनिया में माँ से प्यारी और कोई नहीं लगती है. मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी, खूबसूरत और संवेदनशील महिला है. और जी हाँ इस बात पर मुझे गर्व है. पिछले दिनों दो सालों बाद जब बनारस जा रहा था तो ना जाने क्यों बचपन के दिन याद आ रहे थे. सबसे अधिक अपनी माँ के सा

ये जो ज़िंदगी की किताब है............

कई महीनों से सोच रहा था कि कुछ अपने जीवन के बारे में लिखा जाए. समय के अभाव में लिख नहीं पा रहा था. लेकिन अब मन की सारी भड़ास निकालने का वक्त आ गया है. लगातार रूटीन के काम करते करते अब मैं पूरी तरह पक कर तैयार हूँ. वहीं न्यूज़, वही ऑफिस का माहौल और वही पुराने चेहरे. उफ़ समझ में नहीं आ रहा है क्या किया जाए. और ऊपर से २५ दिसंबर खड़ा है. अब आप ही बातें ऐसे माहौल में कैसे काम किया जाए. सुबह करीब ९ बजे से लेकर सात बजे शाम तक ऑफिस में ज्यादा समय निकल जाता है और बाकी समय लोकल और घर पर. अब मेरे पास ख़ुद के लिए समय ही नहीं बचता है. पिछले दिनों हरिवंश राय बच्चन की क्या भूलूं क्या याद करूँ पढने शुरू किया था लेकिन पूरी हो नही पा रही है. अब क्या किया जाए. कई महीनों से डायरी को भी हाथ नहीं लगाया है. कुछ ऐसा हो भी नहीं रहा है कि जिसे लिखा जाए. लेकिन मेरे जैसे शख्स के लिए कुछ न कुछ लिखना जरुरी है. और जिस दिन मैंने लिखना छोड़ दिया, उस दिन मेरा तो काम तमाम ही है. मेरा पहला प्यार जन्म स्थान बनारस है तो लगता है कि बनारसी ठसक भी होनी चाहिए. लेकिन नहीं है. कई लोगों ने मुझसे यह शिकायत की है कि भाई साहेब आपमें व

धूमिल की एक कविता

मोचीराम राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे क्षण-भर टटोला और फिर जैसे पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला- बाबूजी सच कहूँ- मेरी निगाह में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है। और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है जैसा है, जहाँ कहीं है आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है फिर भी मुझे ख्याल है रहता है कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं, जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है। यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’ बतलाते हैं सबकी अपनी-अपनी शक्ल है अपनी-अपनी शैली है मसलन एक जूता है: जूता क्या है-चकतियों की थैली है इसे एक आदमी पहनता है जिसे चेचक ने चुग लिया है उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर कोई पतंग फँसी है और खड़खड़ा रही है। ‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’ मैं कहना चाहता हूँ मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है मैं महसूस करता हूँ-भीतर से एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो अपनी जाति पर थूकते हो।’ आप यकीन

खोया खोया चाँद को तलाश है दर्शकों की

इसे किसकी बद किस्मती कहें कि अच्छी फिल्मों को दर्शक नहीं मिल पाते हैं. सांवरिया के बाद खोया खोया चाँद के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है जो कि अच्छे फ़िल्म निर्माताओं को निराश करने के लिए काफी है. सुधीर मिश्रा एक ऐसे फ़िल्म मेकर हैं जिन्हें किसी पहचान की जरुरत नही हैं. खोया खोया चाँद भी उन्हीं के द्वारा बनाईं गई एक अच्छी फ़िल्म है. लेकिन इसे दर्शक नहीं मिल पा रहे हैं. मैं जिस हाल में यह फ़िल्म देखने जाता हूँ, वहां मुझे केवल १२ दर्शक ही दिखते हैं. अब आप इस फ़िल्म का अंदाजा लगा सकते हैं. इस फ़िल्म में कई दृश्य आपको मधुबाला और मीना कुमारी की याद दिला सकते हैं. साठ-सत्तर के दशक को परदे पर उतारने के लिए इस फ़िल्म में काफी मेहनत की गई है. लेकिन फ़िल्म में कभी कभी कुछ भटकाव नजर आता है. यह समझना थोड़ा मुश्किल है कि निर्माता इस फ़िल्म में कहना क्या चाहता है. कहानी कहीं कहीं थोडी बोझिल हो जाती है लेकिन इसके बावजूद कम से कम एक बार इसे जरुर देखा जा सकता है. शाहनी आहूजा और सोहा अली खान मुख्य भूमिका में है. लेकिन आप रजत कपूर, सोनिया, सौरभ शुक्ला और विनय पाठक को नजर अंदाज नहीं कर सकते हैं. निखत (सोहा अली