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Showing posts from April, 2007

पत्रकारिता में दलाली और कुछ राय

कल मैने थोड़ी बात पत्रकार बनाम दलाल के बीच उठाई थी। इसे लेकर मेरे पास दो सकारात्‍मक राय आई है। एक इंदौर के पंकज जी की और दूसरी मुंबई के कमल शर्मा जी की। पंकज जी जहां मेरी तरह पत्रकारिता के नए खिलाड़ी हैं। जबकि, कमल जी पिछले सोलह सालों से पत्रकारिता में लगे हुए हैं। बस मैं यहां इन दोनों की राय दे रहा हूं। पंकज जी कहते है कि सच है आशीष हर पत्रकार की दुखती रग है यह। मैं अभी खाटी पत्रकार बना तो नहीं हूँ, पर बनने की राह पर हूँ। जब भी ऐसा कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है, ज़रा निराश होता हूँ, लेकिन फिर भी हाथ लिखने और मुँह बोलने के लिए उकसाता है। बस अपना काम करते चलें।बढ़िया अनुभव बताया आपने। जबकि, कमल शर्मा जी का कहना है कि भाई आशीष यह अपने हाथ है कि दलाल बनना है या पत्रकार। जीवन में कुछ सिद्धांत अपनाकर आप दलालों के बीच भी पत्रकार रह सकते हैं। जरुरी नहीं है कि हर आदमी बिकाऊ कहा जाए। हालांकि पत्रकारों को चाहिए कि वे अपनी आय का दूसरा कानूनी स्‍त्रोत जरुर रखें। केवल पत्रकारिता पर निर्भर रहकर जीवन के अनेक उद्देश्‍य हासिल नहीं किए जा सकते। मीडिया मालिक कई बार अपने स्‍टॉफ से ही मुंह मोड लेते हैं जब

पत्रकारिता में दलाली के सिरमौर

आईए हम मिलकर पत्रकार पत्रकार खेलें। जिसमें कुछ पत्रकार का दंभ भरने वाले होंगे तो कुछ दलाली के सिरमौर होंगे। एक बात तो तय है कि इस खेल में दलालों की संख्‍या रिकार्ड स्‍तर पर जा सकती है। और जो बेचारे वाकई में पत्रकार होंगे, उनकी संख्‍या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। पत्रकारिता में घुसे थे कि कुछ समाज और देश के लिए किया जा सकेगा। लेकिन अब लग रहा है कि दलाली के सिवाय कुछ भी यहां नहीं है। चाहे वह आजमगढ़ जैसा छोटा सा शहर हो या फिर मुंबई जैसा महानगर, एक बात दोनों ही जगह सामान्‍य है। वो यह कि इन दोनों जगह दलालों की कमी नहीं है। कुछेक सौ एक नोट में बिक जाते हैं तो कुछ हवाई टिकट पा कर बिक जाते हैं। बड़ी उल्झन में हूं। लगता है कि कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया। दोस्‍तों से लेकर पुराने पत्रकारों से बात करता हूं तो थोड़ी आशा की किरण नजर आती है। लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्‍हीं के बीच में से रास्‍ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।

सेक्‍स बनाम सेक्‍स शिक्षा

बहस जारी है सेक्स शिक्षा पर। कुछ लोग साथ हैं तो कुछ लोग विरोध में खड़े हैं। सामने खड़े लोगों का कहना है कि इससे हमारी संस्‍कृति को खतरा है। युवा पीढ़ी अपने राह से भटक सकती है। मैं भी एक युवा हूं, उम्र चौब्‍बीस साल की है। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि सेक्‍स शिक्षा से हम अपनी राह से भटक सकते हैं। तो वो कौन होते हैं जो हमारे जैसे और हमारे बाद की पीढि़यों के लिए यह निर्धारित करेंगे कि हम क्‍या पढ़े और क्‍या नहीं। रवीश जी ने अपने लेख में सही ही लिखा है कि सेक्स शिक्षा से हम हर दिन दो चार होते रहते हैं । चौराहे पर लगे और टीवी में दिखाये जाने वाले एड्स विरोधी विज्ञापन किसी न किसी रूप में सेक्स शिक्षा ही तो दे रहे हैं । फिर विरोध कैसा । सेक्स संकट में है । देश नहीं है । समाज नहीं है । इसके लिए शिक्षा ज़रुरी है । लेकिन यह हमारा दोगलापन ही है कि हम घर की छतों और तकियों के नीचे बाबा मस्‍तराम और प्‍ले बाय जैसी किताबें रख सकते हैं लेकिन जब इस पर बात करने की आएगी तो हमारी जुबां बंद हो जाती है। हम दुनियाभर की बात कर सकते हैं, नेट से लेकर दरियागंज तक के फुटपाथ पर वो साहित्‍य तलाश सकते हैं जिसे हमारा सम

क्‍या भूलूं और क्‍या याद करुं

भोपाल यानि झीलों की नगरी। लेकिन मेरे लिए यह सिर्फ एक झीलों की नगरी नहीं बल्कि एक ऐसा मुकाम था जहां मैने बहुत कुछ पाया है। सिर्फ पाया ही नहीं बल्कि जिया भी है। यही से मैने अपनी मास्‍टर डिग्री पूरी की है। माखन लाल यूनिवर्सिटी हमारी यूनिवर्सिटी थी। एक साल हो गए भोपाल छोड़े हुए लेकिन आज भी उसकी एक एक याद जेहन में बसी हुई है। चाहे वह भाजपा कार्यालय के पास जायका की दुकान पर घंटों बैठना हो या फिर भईया लाल की दुकान पर बैठकर मस्‍ती और कई मुददों पर बात और फिर बहस करना। इन्‍हीं दुकानों पर बैठकर सिगरेट का धुंआ छोड़ना हो या फिर भोपाल की सड़कों पर रातों में धूमना हो। सबकुछ याद है। कई छोटी छोटी बातें हैं जिसे मुझे कहना है। मसलन हबीबगंज स्‍टेशन के सामने रात के दो बजे चाय पीने के लिए जाना हो या फिर बीयर के नशे में हंगामा करना हो। बहुत जिया है मैने भोपाल को। मैंने ही नहीं बल्कि मेरे जैसे कई लोगों ने भोपाल को जिया है। भोपाल शुरुआती दौर में मुझे बड़ा बोरिंग लगा लेकिन जब वहां रहने का एक मकसद मिला था सही में मुझे उस शहर से प्‍यार हो गया था। भोपाल में अंतिम दिनों को मैने जमकर जिया है। देर रात तक कैम्‍पस की ल

इसी लिए कहता हूं कि मुझे जानने का हक है

देश में सूचना का अधिकार और रोजगार गारंटी कानून तो लागू है। लेकिन क्‍या आपको पता है कि यह इससे जमीन पर लाने के लिए क्‍या क्‍या पापड़ बेलने पड़े। चलिए मैं अपने शब्‍दों में थोड़ा सा बताने का प्रयास करता हूं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन दोनों कानूनों की सबसे पहली लड़ाई राजस्‍थान से ही शुरु हुई थी। जिसके बाद ही दूसरों राज्‍यों में इस कानून को बनाने के लिए आंदोलन शुरू हो पाया।मुझे अच्‍छी तरह याद है कि कैसे पहले सूचना के अधिकार को फिर रोजगार गारंटी कानून को लेकर लड़ाई लड़ी गई थी। आज भी यह लड़ाई जारी है बस फर्क इतना है कि अब लड़ाई इस कानून का फायदा समाज के लोगों को दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है। देश में कानूनों की कमी नहीं है। लेकिन कोई भी कानून तभी सफल हो सकता है जब लोग उसे प्रयोग में लाएं। सूचना के अधिकार को लेकर मजदूर किसान शक्ति संगठन की अरुणा राय ने एक बार इस कानून को डेमोक्रेसी के लिए आक्‍सीजन बताया था। पूरे देश में इन दोनों कानूनों के लिए जमीन से लेकर सरकारी स्‍तर पर खूब लड़ाई लड़ी गई है। चाहे वह जयपुर में 52 दिन को वो धरना हो या फिर संसद की सड़कों पर उतरना हो। इसी लिए कहता हूं कि मु

बनारस शहर नहीं संस्‍कृति का नाम

आज मेरे सबसे पसंदीदा शहर बनारस पर लिखने का मन कर रहा है। बनारस को आप कई नाम से बुला सकते हैं। मसलन काशी या फिर वाराणसी। बनारस किसी शहर का नाम नहीं बल्कि एक संस्‍कृति का नाम है। जो एक बार बनारस की पुरानी गलियों में रह लिया है, वो कभी भी बनारस को नहीं भूला सकता है। मैं भी नहीं भूला सकता हूं। मेरी बचपन इसी शहर की गलियों में बीता है। इन्‍हीं गलियों में मैं बड़ा हुआ हूं। दशाश्‍वमेघ घाट पर वो चार आंगन का घर और हर रोज गंगा के किनारे शाम बीताना आखिर कोई कैसे भूल सकता है। बनारस में प्रतिदिन लाखों की तादाद में बाहरी लोग धूमने या फिर गंगा स्‍थान के लिए आते हैं। लेकिन बनारस है कि बदलने का नाम ही नहीं लेता है। मेरे बचपन के बनारस और आज के बनारस में मुझे कोई खास फर्क नजर नहीं आता है। हालांकि थोड़ा परिवर्तन तो हुआ है लेकिन यह सुरक्षा के लिहाज से जरुरी था। जैसे अब आप बेरोकटोक विश्‍वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के करीब नहीं जा सकते हैं। लेकिन जब मैं छोटा था तो स्‍कूल से भागकर हर रोज ज्ञानवापी मस्जिद में वजू वाले तालाब में रंगीन मछलियों के साथ खेलता था और फिर विश्‍वनाथ मंदिर की गलियों से घूमते हु