क्या आपने कभी उस खामोशी को महसूस किया है जो आपके आसपास अपनों की है। उनकी खामोशी जो बोलना चाहती है लेकिन वो अपनी खामोशी कोई शब्द देना नहीं चाहते हैं। इसके क्या कारण होते हैं मैं नहीं जानता हूं। लेकिन फिर भी मैं कुछ कहने की कोशिश करुंगा जो कि मेरे दिल में है। शायद वो खामोश इस लिए रहते हैं ताकि दूसरों की भावना को ठेस नहीं पहुंचे या फिर आने वाले तूफान को मोडना चाहते हैं वो लोग जो खामोश रहत हैं। लेकिन मुझे डर लगता है इन खामोशियों से। आखिर हम क्यूं चुप रहें। क्यूं अपनी बातों को हम कोई शब्द नहीं देना चाहते हैं। माना कि आपकी खामोशी से किसी को बुरा लग सकता है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हम चुप रहें। हम अपने दोस्तों के साथ क्यों खामोश रहते हैं। इस खामोशी को सबसे अधिक औरतों में देखा जा सकता है। पुरुष स्वभाव से आजाद और असभ्य होता है।जो दिल में आया कहा दिया। वह यह भी नहीं सोचता है कि इस शब्दों को दूसरों पर क्या असर पड़ेगा। लेकिन इस मामले में औरतें सभ्य और शालीन होती है। क्यूं होती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण उनके आसपास का वातारवरण और सामाजिक परिवेश को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। जहां बचपन से ही लड़कियों को सहन की शिक्षा दी जाती है। पहले भाई की, फिर बाप, फिर पति की और अंतिम समय बेटों की। बचपन से जो खामोशी की चादर वो ओढ़ती हैं वो उनके जाने के साथ ही खत्म होती है।
मुंबई यानि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्चे कुपोषित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्चे उन्हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम
Comments
बहुत अच्छे ढंग से ख़ामोशी का विश्लेषण किया है। किंतु ख़ामोशी का एक और भी कारण है -
"लोग क्या कहेंगे?"
व्यक्ति को, चाहे वह नारी हो या पुरुष, अपनी ख़ामियां, अपनी गलतियां और अपने ही कर्म (मैं पिछले जन्म आदि की बात नहीं कर रहा हूं)
मस्तिष्क की एक बंद कोठड़ी में डाल देते है जिसका नाम है 'ख़ामोशी'! ज्यों ही उस कोठड़ी का दरवाज़ा खोलने का प्रयास करता है तो यही सोच कर कि "लोग क्या कहेंगे?" उसी अंधेरे में
खो जाता है।-- परिणाम क्या होते है? मनोवैज्ञानिक आज भी पता लगाने में लगे हुए हैं।
महावीर शर्मा
क्यूँ पहुँचता नहीं है मेरा मौन तुम तक…
मैने कहना नहीं सीखा…कि तुम सुनते नहीं हो…?
निःशब्दता में इतना कहा है…
किन्तु मनन के लिए,
जब शोर हो चारों ओर सत्य के हनन के लिए
तब तुम्हे अपनी बात ज्वलन्त शब्दों में कहनी चाहिए
सिर कटाना पड़े या न पड़े,
तैयारी तो उसकी रहनी चाहिए "
- भवानी प्रसाद मिश्र.