Skip to main content

बनारस शहर नहीं संस्‍कृति का नाम


आज मेरे सबसे पसंदीदा शहर बनारस पर लिखने का मन कर रहा है। बनारस को आप कई नाम से बुला सकते हैं। मसलन काशी या फिर वाराणसी। बनारस किसी शहर का नाम नहीं बल्कि एक संस्‍कृति का नाम है। जो एक बार बनारस की पुरानी गलियों में रह लिया है, वो कभी भी बनारस को नहीं भूला सकता है। मैं भी नहीं भूला सकता हूं। मेरी बचपन इसी शहर की गलियों में बीता है। इन्‍हीं गलियों में मैं बड़ा हुआ हूं। दशाश्‍वमेघ घाट पर वो चार आंगन का घर और हर रोज गंगा के किनारे शाम बीताना आखिर कोई कैसे भूल सकता है। बनारस में प्रतिदिन लाखों की तादाद में बाहरी लोग धूमने या फिर गंगा स्‍थान के लिए आते हैं। लेकिन बनारस है कि बदलने का नाम ही नहीं लेता है। मेरे बचपन के बनारस और आज के बनारस में मुझे कोई खास फर्क नजर नहीं आता है। हालांकि थोड़ा परिवर्तन तो हुआ है लेकिन यह सुरक्षा के लिहाज से जरुरी था। जैसे अब आप बेरोकटोक विश्‍वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के करीब नहीं जा सकते हैं। लेकिन जब मैं छोटा था तो स्‍कूल से भागकर हर रोज ज्ञानवापी मस्जिद में वजू वाले तालाब में रंगीन मछलियों के साथ खेलता था और फिर विश्‍वनाथ मंदिर की गलियों से घूमते हुए घर पहुंचता था। लेकिन अब यह संभव नहीं है। बनारस मंदिरों का शहर है,घाटों का शहर है और शहर है जिंदादिली और फक्‍कड़ जिदंगी का। आज भी बनारस की दुकानों पर बैठकर लोग बुश से लेकर अपने पार्षद का चिरहरण कर लेते हैं। इस बहस में एक सामान्‍य आदमी से लेकर कई नामीगिरामी जर्नलिस्‍टों को शामिल देखा है मैने। ऐसा है मेरा बनारस। दंगें होते हैं, बम बिस्‍फोट होते हैं लेकिन बनारस नहीं बदलता है और कभी बदलेगा भी नहीं। जिस दिन बनारस बदल गया, उस दिन बनारस बनारस नहीं रहेगा।

Comments

Anonymous said…
isko padkarlag raha hai ki aj apko apne ghar ki bahut yaad aa rahi hai..kya maine sahi kaha hai????
Anonymous said…
aap sahi kah rahe hain!
Anonymous said…
बनल रही बनारस । बम !
Pratik Pandey said…
बनारस की संस्कृति तो सतत प्रवाहमयी है। चिरकाल से बनारस ऐसा ही है और शायद आगे भी अनंत काल तक ऐसा ही जीवंत रहेगा।
1999 में बनारस में दस दिन गुजारने का मौका मिला था, तब से यह मेरे पसंदीदा शहरों में से एक है, एक अजीब सी अलमस्तता है इस शहर में। सुबह गंगा किनारे बैठकर सूर्योदत देखना एक अलग ही एहसास जगा जाता था। मुझे यदि हर साल कुछ दिन के लिए किसी एक शहर में रहने के लिए कहा जाए तो निश्चित ही वह शहर बनारस होगा।
Anonymous said…
विश्व के सबसे पुराने जीवित और स्पंदनशील शहर (ओल्डेस्ट लिविंग सिटी) को उसकी संस्कृति ने ही तो बचाए और बनाए रखा है .

Popular posts from this blog

मुंबई का कड़वा सच

मुंबई या‍नि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्‍वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्‍ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्‍त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्‍चे कुपो‍षित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्‍चे उन्‍हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम

प्यार, मोहब्बत और वो

आप यकिन कीजिए मुझे प्यार हो गया है. दिक्कत बस इतनी सी है कि उनकी उमर मुझसे थोडी सी ज्यादा है. मैं २५ बरस का हूँ और उन्होंने ४५ वा बसंत पार किया है. पेशे से वो डाक्टर हैं. इसी शहर में रहती हैं. सोचता हूँ अपनी मोहब्बत का इज़हार कर ही दूँ. लेकिन डर भी सता रहा है. यदि उन्होंने ना कर दिया तो. खैर यह उनका विशेषाधिकार भी है. उनसे पहली मुलाकात एक स्टोरी के चक्कर में हुई थी. शहर में किसी डाक्टर का कमेन्ट चाहिए था. सामने एक अस्पताल दिखा और धुस गया मैं अन्दर. बस वहीं उनसे पहली बार मुलाकात हुई. इसके बाद आए दिन मुलाकातें बढती गई. यकीं मानिये उनका साथ उनकी बातें मुझे शानदार लगती हैं. मैं उनसे मिलने का कोई बहाना नहीं छोड़ता हूँ. अब आप ही बताएं मैं क्या करूँ..

बेनामी जी आपके लिए

गुजरात में अगले महीने चुनाव है और इसी के साथ भगवा नेकर पहनकर कई सारे लोग बेनामी नाम से ब्लॉग की दुनिया में हंगामा बरपा रहे हैं. एक ऐसे ही बेनामी से मेरा भी पाला पड़ गया. मैं पूरा प्रयास करता हूँ कि जहाँ तक हो इन डरपोक और कायर लोगों से बचा जाए. सुनील ने मोदी और करण थापर को लेकर एक पोस्ट डाल दी और मैं उस पर अपनी राय, बस फिर क्या था. कूद पड़े एक साहेब भगवा नेकर पहन कर बेनामी नाम से. भाई साहब में इतना सा साहस नहीं कि अपने नाम से कुछ लिख सकें. और मुझे ही एक टुच्चे टाईप पत्रकार कह दिया. मन में था कि जवाब नहीं देना है लेकिन साथियों ने कहा कि ऐसे लोगों का जवाब देना जरूरी है. वरना ये लोग फिर बेनामी नाम से उल्टा सुलटा कहेंगे. सबसे पहले बेनामी वाले भाई साहब कि राय.... अपने चैनल के नंगेपन की बात नहीं करेंगे? गाँव के एक लड़के के अन्दर अमेरिकन वैज्ञानिक की आत्मा की कहानी....भूल गए?....चार साल की एक बच्ची के अन्दर कल्पना चावला की आत्मा...भूल गए?...उमा खुराना...भूल गए?....भूत-प्रेत की कहानियाँ...भूल गए?... सीएनएन आपका चैनल है!....आशीष का नाम नहीं सुना भाई हमने कभी...टीवी १८ के बोर्ड में हैं आप?...कौन सा