
आईए हम मिलकर पत्रकार पत्रकार खेलें। जिसमें कुछ पत्रकार का दंभ भरने वाले होंगे तो कुछ दलाली के सिरमौर होंगे। एक बात तो तय है कि इस खेल में दलालों की संख्या रिकार्ड स्तर पर जा सकती है। और जो बेचारे वाकई में पत्रकार होंगे, उनकी संख्या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। पत्रकारिता में घुसे थे कि कुछ समाज और देश के लिए किया जा सकेगा। लेकिन अब लग रहा है कि दलाली के सिवाय कुछ भी यहां नहीं है। चाहे वह आजमगढ़ जैसा छोटा सा शहर हो या फिर मुंबई जैसा महानगर, एक बात दोनों ही जगह सामान्य है। वो यह कि इन दोनों जगह दलालों की कमी नहीं है। कुछेक सौ एक नोट में बिक जाते हैं तो कुछ हवाई टिकट पा कर बिक जाते हैं। बड़ी उल्झन में हूं। लगता है कि कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया। दोस्तों से लेकर पुराने पत्रकारों से बात करता हूं तो थोड़ी आशा की किरण नजर आती है। लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्हीं के बीच में से रास्ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।
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बढ़िया अनुभव बताया आपने।