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पत्रकारिता में दलाली के सिरमौर


आईए हम मिलकर पत्रकार पत्रकार खेलें। जिसमें कुछ पत्रकार का दंभ भरने वाले होंगे तो कुछ दलाली के सिरमौर होंगे। एक बात तो तय है कि इस खेल में दलालों की संख्‍या रिकार्ड स्‍तर पर जा सकती है। और जो बेचारे वाकई में पत्रकार होंगे, उनकी संख्‍या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। पत्रकारिता में घुसे थे कि कुछ समाज और देश के लिए किया जा सकेगा। लेकिन अब लग रहा है कि दलाली के सिवाय कुछ भी यहां नहीं है। चाहे वह आजमगढ़ जैसा छोटा सा शहर हो या फिर मुंबई जैसा महानगर, एक बात दोनों ही जगह सामान्‍य है। वो यह कि इन दोनों जगह दलालों की कमी नहीं है। कुछेक सौ एक नोट में बिक जाते हैं तो कुछ हवाई टिकट पा कर बिक जाते हैं। बड़ी उल्झन में हूं। लगता है कि कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया। दोस्‍तों से लेकर पुराने पत्रकारों से बात करता हूं तो थोड़ी आशा की किरण नजर आती है। लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्‍हीं के बीच में से रास्‍ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।

Comments

Anonymous said…
सच है आशीष हर पत्रकार की दुखती रग है यह। मैं अभी खाटी पत्रकार बना तो नहीं हूँ, पर बनने की राह पर हूँ। जब भी ऐसा कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है, ज़रा निराश होता हूँ, लेकिन फिर भी हाथ लिखने और मुँह बोलने के लिए उकसाता है। बस अपना काम करते चलें।
बढ़िया अनुभव बताया आपने।
भाई आशीष यह अपने हाथ है कि दलाल बनना है या पत्रकार। जीवन में कुछ सिद्धांत अपनाकर आप दलालों के बीच भी पत्रकार रह सकते हैं। जरुरी नहीं है कि हर आदमी बिकाऊ कहा जाए। हालांकि पत्रकारों को चाहिए कि वे अपनी आय का दूसरा कानूनी स्‍त्रोत जरुर रखें। केवल पत्रकारिता पर निर्भर रहकर जीवन के अनेक उद्देश्‍य हासिल नहीं किए जा सकते। मीडिया मालिक कई बार अपने स्‍टॉफ से ही मुंह मोड लेते हैं जब उन्‍हें लगता है कि रिपोर्टर ने उन्‍हें किसी खबर में फंसा दिया मतलब उनके हितों पर चोट लगने जा रही है। ऐसे में दूसरा वैद्य आय का स्‍त्रोत आपको घरेलू जरुरत को पूरा करने में मददगार होगा। दलाल बनना कभी सहायक नहीं हो सकता। कठिनाई का रास्‍ता है लेकिन जीत सच की होती है, मीडिया दलालों की नहीं। दलाल कुछ समय खुश रहता है कि चलो खूब मौज हो रही है लेकिन मीडिया से जल्‍दी ही उसकी अर्थी भी निकलती है। मैं खुद ऐसे कई पत्रकारों को जानता हूं जो दलाल बने और बगैर कुछ काम धाम के सड़कों पर घूम रहे हैं। लोग उनके बारे में कहते हैं कि कुत्‍ता है पूंछ हिलाते हुए आ गया...यार दो चार सौ या कुछ और कीमत डाल दो अपने आप तलवे चाटेगा। यह इज्‍जत होती है दलालों की। मीडिया दलालों और वेश्‍याओं के दलालों मे कोई अंतर नहीं है। दोनों किसी न किसी चीज को बेचते हैं।

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