बहस जारी है सेक्स शिक्षा पर। कुछ लोग साथ हैं तो कुछ लोग विरोध में खड़े हैं। सामने खड़े लोगों का कहना है कि इससे हमारी संस्कृति को खतरा है। युवा पीढ़ी अपने राह से भटक सकती है। मैं भी एक युवा हूं, उम्र चौब्बीस साल की है। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि सेक्स शिक्षा से हम अपनी राह से भटक सकते हैं। तो वो कौन होते हैं जो हमारे जैसे और हमारे बाद की पीढि़यों के लिए यह निर्धारित करेंगे कि हम क्या पढ़े और क्या नहीं। रवीश जी ने अपने लेख में सही ही लिखा है कि सेक्स शिक्षा से हम हर दिन दो चार होते रहते हैं । चौराहे पर लगे और टीवी में दिखाये जाने वाले एड्स विरोधी विज्ञापन किसी न किसी रूप में सेक्स शिक्षा ही तो दे रहे हैं । फिर विरोध कैसा । सेक्स संकट में है । देश नहीं है । समाज नहीं है । इसके लिए शिक्षा ज़रुरी है ।
लेकिन यह हमारा दोगलापन ही है कि हम घर की छतों और तकियों के नीचे बाबा मस्तराम और प्ले बाय जैसी किताबें रख सकते हैं लेकिन जब इस पर बात करने की आएगी तो हमारी जुबां बंद हो जाती है। हम दुनियाभर की बात कर सकते हैं, नेट से लेकर दरियागंज तक के फुटपाथ पर वो साहित्य तलाश सकते हैं जिसे हमारा समाज अश्लील कहता है। हम सिनेमा हाल से लेकर अपने पीसी तक पर ब्लू फिल्म देख सकते हैं। महिलाओं को लेकर हम कुछ भी कह सकते हैं, उन्हें सिर्फ भोगविलास के काम आने वाली वस्तु के रुप में उपभोग कर सकते हैं लेकिन जब सेक्स शिक्षा की बात आती है तो कुछेक लोग लाल पीले हो जाते हैं। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो कि जब घर में रहते हैं तो भजन कीर्तन करते हुए पोते पोतियों को खिलाते हैं। लेकिन समय मिलते ही शहर के किसी सिनेमा हाल में ब्लू फिल्म देखते दिख जाएगा। आजमगढ़ से लेकर मुंबई तक के सिनेमा हालों में ब्लू फिल्म देखने वाले अधिकतर वो ही होते हैं जिनकी उम्र पैतालीस पचास पार कर चुकी है। सेक्स शिक्षा का विरोध करने वाला भी इसी तबके से आता है
क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है कि सेक्स शिक्षा देने से हजारों साल पुरानी संस्कृति को खतरा महसूस हो रहा है दुनिया को कामसूत्र जैसा ग्रंथ और खजुराहो जैसा मंदिर देने वाले देश में आखिर सेक्स शिक्षा का विरोध्ा क्यूं!
लेकिन यह हमारा दोगलापन ही है कि हम घर की छतों और तकियों के नीचे बाबा मस्तराम और प्ले बाय जैसी किताबें रख सकते हैं लेकिन जब इस पर बात करने की आएगी तो हमारी जुबां बंद हो जाती है। हम दुनियाभर की बात कर सकते हैं, नेट से लेकर दरियागंज तक के फुटपाथ पर वो साहित्य तलाश सकते हैं जिसे हमारा समाज अश्लील कहता है। हम सिनेमा हाल से लेकर अपने पीसी तक पर ब्लू फिल्म देख सकते हैं। महिलाओं को लेकर हम कुछ भी कह सकते हैं, उन्हें सिर्फ भोगविलास के काम आने वाली वस्तु के रुप में उपभोग कर सकते हैं लेकिन जब सेक्स शिक्षा की बात आती है तो कुछेक लोग लाल पीले हो जाते हैं। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो कि जब घर में रहते हैं तो भजन कीर्तन करते हुए पोते पोतियों को खिलाते हैं। लेकिन समय मिलते ही शहर के किसी सिनेमा हाल में ब्लू फिल्म देखते दिख जाएगा। आजमगढ़ से लेकर मुंबई तक के सिनेमा हालों में ब्लू फिल्म देखने वाले अधिकतर वो ही होते हैं जिनकी उम्र पैतालीस पचास पार कर चुकी है। सेक्स शिक्षा का विरोध करने वाला भी इसी तबके से आता है
क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है कि सेक्स शिक्षा देने से हजारों साल पुरानी संस्कृति को खतरा महसूस हो रहा है दुनिया को कामसूत्र जैसा ग्रंथ और खजुराहो जैसा मंदिर देने वाले देश में आखिर सेक्स शिक्षा का विरोध्ा क्यूं!
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tumhari ek Dost from MCRPV