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साधारण आंखों में असाधारण सपने

महात्‍मा गांधी के सपनों का हिंदुस्‍तान भले ही हम न बना पाएं लेकिन बापू की प्रयोगधर्मिता देशके उन तमाम युवाओं को जाने अनजाने में जरुर प्रेरित करती है, जिसके कारण आज सैकड़ों की तादाद में युवक-युवतियां जमीन से उठकर सफलता के नए मापदंड तय कर रहे हैं। वो कोई भी हो सकता है। बशर्ते उन्‍हें जोखिम उठाने का सा‍हस हो। वो एक पेट्रोल पंप पर काम करने वाले युवक से औद्यगिक साम्राज्य खड़ा करने वाले धीरूभाई अंबानी भी हो सकते हैं और साधारण सी नौकरी करने वाले एक पत्रकार से अपना मीडिया साम्राज्‍य खड़ा करने वाले राघव बहल भी।

आप इस बात को माने या नहीं मानें लेकिन जमीन के नीचे काफी कुछ बड़ी तेजी से बदल रहा है। इस बदलाव का आमतौर पर सतही नजर से देखने या अनुभव करने से कोई अहसास नहीं होता लेकिन चीजों में बदलाव तो ही रहा है। यह बदलाव हिंदुस्‍तान में तेजी से उभरते मध्‍य वर्ग में हो रहा है। कल के लखपति या फिर कुछ रुपए तक कमाने वाला आज मध्‍यवर्ग की पहचान बन चुका है। इसमें आप चाहें तो अंबानी साम्राज्‍य के जनक धीरुभाई को या फिर मुंबई के उन हजारों डिब्‍बों वालों को शामिल कर सकते हैं, जिनकी समाज में एक अलग पहचान है। कोई भी परिवर्तन अचानक नहीं होता है। यह बदलाव भी अचानक नहीं हुआ है। कई सालों या कहें कि दशकों में यह बदलाव हुआ है। बात सत्‍तर के दशक से शुरु करते हैं जब भारतीय समाज में बड़ी तेजी से बदलाव आने शुरु हुए थे। उस दौर में पड़ोसी से बेहतर दिखने और रहने की कसक ने एक नए मध्‍यवर्ग को जन्‍म दिया था। जो पैदल चलते थे वो साइकिल पर चलने लगे थे और साइकिल वाले स्‍कूटर पर । लेकिन कई सालों बाद या कहें, 1991 के बाद देश की अर्थ व्‍यवस्‍था को और उदार बनाने के लिए तत्‍कालीन केंद्र सरकार की ओर से उठाए गए ऐतिहासिक कदम ने देश को एक नया मध्‍यवर्ग दिया। जिसकी तादाद आज बढ़कर पच्‍चीस करोड़ हो गई है। यह वही मध्‍यवर्ग है जो पश्चिम की आधुनिकता और भारतीय पंरपरा के बीच में तालमेल करके जीता है। यह मध्‍यवर्ग यदि मैकडॉनल्‍ड में बैठकर पिज्जा खाता है तो मंदिरों मे जाकर अपने ईष्‍ट देव को पूजना भी नहीं भूलता है।

इस मध्यमवर्ग को समझ पाना आसान नहीं है। इसके बावजूद यह बड़ी तेजी से उभर रहा है यहां इसी मध्‍यवर्ग में आज कोई देश दुनिया का कोई प्रसिद्व आईटी पेशेवर बनकर उभर रहा है तो कोई कारोबार जगत में अपना डंका बजवा रहा है। कल तक कुछ हजार रुपए की नौकरी करने वाले अब लाखों में खेल रहे हैं। जहां पहले एक घर बनवाना सपना हुआ करता था, आज बैंकों की मेहरबानी से कुछ ही दिनों में आपका अपना घर तैयार मिल सकता है। इस मध्‍यवर्ग के पास यदि सत्‍ता तक पहुंचने की चाबी है तो साथ में जोखिम लेने की प्रवृति भी है।

हम पुणे के सिम्बॉयसिस से कर्मचारी प्रबंधन में स्नातकोत्तर कुल्तार सिंह का उदाहरण ले सकते हैं, जो पांच वर्ष पहले न्यूजीलैंड जाकर वहां के स्थायी नागरिक बनने के बाद वापस स्‍वदेश लौट आए और अपने भाई हरजोध सिंह के साथ खेती-बाड़ी करने लगे। यह युवा पीढ़ी का प्रतीक हैं। इन परिवर्तनों से स्पष्ट दिखलाई पड़ता है कि नई पीढ़ी जल्‍द हार मानने वाली नहीं है। वो जोखिम की किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम पंजाब के ही बागवानी विशेषज्ञ खुशवंत सिंह की बात कर सकते हैं जो खेती के अतिरिक्त लेखन में भी अपना हाथ आजमा चुके हैं और जल्‍दी ही अपनी दूसरी पुस्तक लिखने वाले हैं।

द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास नामक किताब लिखने वाले पवन गुप्‍ता ने अपनी किताब में मध्‍य वर्ग की मानसिकता का बड़े शानदार ढंग से बखान किया है। पवन वर्मा अपनी किताब में कहते हैं कि भारत में नामचीन या सैलेब्रेटीज को लेकर निम्‍न वर्ग से लेकर मध्‍य वर्ग व ऊपरी वर्ग तक झुकाव होता है।

समाज का सबसे निचला आदमी थोड़ा ऊपर उठना चाहता है। और जो थोड़ा ऊपर है वो अपने से ऊपर वाले से ऊपर जाना चाहता है। प्रतिस्पर्धा की यही भावना एक नए मध्‍यवर्ग को जन्‍म देती है।
देश का जाना माना बैंक यस बैंक की नींव रखने वाले राना कपूर का पुश्‍तैनी आभूषणों का व्‍यवसाय था। लेकिन उन्‍होंने इस हट कर कुछ करने की ठानी। नतीजा सामने था। राना कपूर ने अपने एक साक्षात्‍कार में कहा था कि यदि उनके पिता का साथ नहीं होता तो वो आज एक सफल व्‍यवसायी नहीं होते। कपूर के पिता दूरदर्शी थे और आने वाले समय को भांप कर अपने उस रास्‍ते को बदल लिया था, जो उनके पिता ने उनके लिए बनाया था।

अनिल अंबानी, एक समय सप्‍ताह में जब बाहर पूरे परिवार के साथ घूमने जाते थे तो उनके पिता धीरुभाई साफ कहते थे कि या तो एक नाश्‍ता ले लो या साफ्ट ड्रिंक लेकिन आज अंबानी औद्योगिक घराने का डंका जमकर बज रहा है। कर लो दुनिया मुठ्ठी में के, धीरु भाई अंबानी के इस मुकाम तक पहुंचने का संघर्ष और परिवार की पूरी कथा किसी रोमांचक घटना से कम नहीं है। अंबानी घराने ने जिस आक्रामक ढंग से अपने कारोबार का विस्‍तार किया उससे क्‍या पुराने और क्‍या नए, सभी उद्यमी दंग हैं। धीरु भाई ने एक ख्‍वाब देखा था। जिसे जमीन पर हकीकत के रुप में बदलने के लिए उन्‍होंने वो सबकुछ किया जो उन्‍हें गलत या सही लगा।

मध्‍य वर्ग की अपनी एक सीमा होती है लेकिन ख्‍वाब देखने वाले किसी सीमा को नहीं मानते हैं। वो हर जोखिम के लिए खुले दिल से तैयार रहते हैं। मीडिया जगत में अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले राधव बहल को देखिए। नेटवर्क 18 जैसे एक बड़े समूह को खड़े करने वाले बहल ने 1985 में दूरदर्शन से अपने कैरियर की शुरुआत की थी। लेकिन कुछ अलग करने की इच्‍छा ने राघव बहल को एक मीडिया मुगल में बदल दिया। आज नेटवर्क 18 समूह में कई हजार मीडिया पेशेवर कार्यरत हैं।

समाजिक क्षेत्र की बात करें तो बाबा आमटे के योगदान को कौन भूल सकता है। 26 दिसंबर 1914 में महाराष्‍ट्र के वर्धा जिलें एक छोटे से गांव में जन्‍मे बाबा के पिता शासकीय सेवा में लेखपाल थे। बचपन शान से बिता था। लेकिन बाबा ने सब कुछ छोड़कर गांधी के रास्‍ता पर जाना ही बेहतर समझा। बाबा चाहते थे तो अपनी पढ़ाई के बल पर किसी बड़ी नौकरी को पकड़ कर बडे शान से अपना जीवन बिता सकते थे। लेकिन बाबा ने ऐसा रास्‍ता नहीं अपनाया। देखते देखते वो पूरे देश के बाबा बन गए। गरीब, आदिवासियों और मजदूरों की आवाज थे बाबा। आज के इस आधुनिक समय में अगर किसी व्यक्ति ने उपेक्षित, पीड़ित और समाज की घोर उपेक्षा के शिकार कुष्ट रोगियों की पीड़ा और संवेदना को अगर किसी ने समझा था तो वे बाबा आमटे ही थे।हर सफल इंसान पहले बड़े सपने देखने का साहस करता और उसके बाद उसे पूरा करने में जी जान से जुट जाता है। सही भी है। जब तक हम आप सपने नहीं देखेंगे, उन्‍हें सच की जमीन पर कैसे उतारेंगे। इस मामले में युवा कुछ अधिक आगे रहते हैं। उम्र के एक पड़ाव में अधिकांश लोग समझौते करने लगते हैं, लेकिन मध्‍य वर्ग का युवा लड़ता है अपने ख्‍वाब को पूरा करने के लिए।

सपने देखना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है उन्‍होंने सच कर दिखाना। हमें से कोई अनिल अंबानी, मुकेश अंबानी, शिव नाडार, राना कपूर, दीपक पारेख, सुनील भारती, के पी सिंह, लक्ष्‍मी मित्‍तल, विक्रम पंडित, सबीर भाटिया, प्रणय रॉय, राघव बहल तो कोई नारायण मूर्ति बनना चाहता है। लेकिन इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास कौन करता है। और यदि किसी ने प्रयास भी किया तो सरकारी नीतियां रास्‍ते में रोडा अटका देती थी। लेकिन भला हो मनमोहन सिंह का। जिन्‍होंने वर्ष 1991 में देश की अर्थव्‍यवस्‍था को उदार बनाने के लिए देश की सीमा को समूची दुनिया के लिए खोल दिया और जिससे देश में पूंजी का प्रवाह बढ़ा। पूंजी के प्रवाह के साथ बड़ी मात्रा में लोगों को रोजगार मिलने लगे। लोगों की आमदनी में इजाफा हुआ। परिणाम यह हुआ कि कल तक जो विदेश में या बड़े संस्‍थानों में पढ़ने का ख्‍वाब देते रह गए थे। आज उन्‍हीं के बच्‍चे आईआईआईएम से लेकर विदेशों में शिक्षा ग्रहण करके न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी अपना परचम पहरा रहे हैं। इसमें से अधिकांश मध्‍यम वर्ग से आते हैं। यह वही मध्‍यम वर्ग है जो 1991 के बाद पनपा है।

आज से कुछ बरसों पहले देश में ऐसे युवा बिरले ही मिलते थे जिन्‍हें कामयाब कहा जा सकता है, लेकिन स्थिति अब बदल चुकी है। हिंदुस्‍तान बदल रहा है और इसी के साथ देश की अर्थव्‍यवस्‍था में बड़ी तेजी से नाटकीय बदलाव आ रहे हैं। इस नाटकीय बदलाव से सबसे अधिक फायदा यदि किसी को मिला है तो वह है युवा और खासतौर पर मध्‍यम वर्ग के शिक्षित युवा को।

यदि हम भारतीय व्‍यवसायियों की बात करें तो देश में अब दो तरह के बिजनेसमैन हैं। एक वे जिन्‍हें विरासत में एक बड़ा सामाज्‍य मिला है तो दूसरे वे जो मध्‍यम वर्ग से निकल कर नए नए तुर्क बने हैं। पृष्‍ठभूमि में अंतर होने के साथ ही इन दोनों की मानसिकता में भी जमीन आसमान का अंतर है। पुरानी पीढ़ी के कारोबारियों में जहां जोखिम लेने की क्षमता कम थी, वहीं युवा व्‍यवसायी या पेशेवर लोग बिना किसी हिचक के बड़े से बड़े फैसले लेते हैं। इसके पीछे मुख्‍य कारण जो नजर आता है नई पीढ़ी के पास पुरानी पीढ़ी से तुलानात्‍मक रुप से कम जिम्‍मेदारी ही उन्‍हें जोखिम की क्षमता को बढ़ाती है। पुरानी पीढ़ी ने अपनी पूरी उम्र ही संघर्ष में बिता दी थी। लेकिन नई जमात के व्‍यवसायियों से लेकर पेशेवर तक को ऐसे संघर्ष से नहीं गुजरना पड़ रहा है, जिससे कभी उनके पहले से व्‍यवसायी या बुर्जुग गुजरते थे। स्थिति में काफी बदलाव आया है।

अर्थव्‍यवस्‍था के स्‍तर पर देखें तो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर लगातार दो साल में नौ प्रतिशत रही है और चालू वर्ष में 8.7 फीसदी रहने का अनुमान लगाया जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार 281 अरब डॉलर से ऊपर है। विदेशी निवेश तेजी से बढ़ा है। उम्मीद जताई जा रही है कि भारत 2020 तक विश्व में एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा। ऐसे में अमरीकी मंदी से भले ही बंबई स्‍टॉक एक्‍सचेंज का इंडेक्‍स १७ हजार से नीचे आ गया हो लेकिन अभी भी भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में चमक बरकरार है, जो कि आगे भी जारी रह सकती है। आज हमारे युवा अमरीका से लेकर आस्‍ट्रेलिया तक में अपना झंडा गाड़ रहे हैं। बदलती मानसिकता की ही देन है कि आज दुनिया के सबसे अमीर दस लोगों में से चार अकेले भारतीय हैं।

देश में तेजी से उभर रहे मध्‍य वर्ग की स्थिति और सफलता के बीच देश की आर्थिक दशा को लेकर मेरा एक लेख पिछले रविवार को जयपुर से प्रकाशित राजस्‍थान पत्रिका समूह के डेली न्‍यूज में प्रकाशित हुआ है। अखबार ने इसे अपनी कवर स्‍टोरी बनाई।

Comments

आशीष बहुत अच्छा लिखा। सही कहा जो अपने बल-बूते पर कुछ बने हैं। उनमें जोखिम लेने की क्षमता अधिक है और वो अवसर का पूरा लाभ लेने में नहीं हिचकते। भारतीय अर्थव्यवस्था में अब नव स्थापित मध्यम वर्गीय व्यापारियों का बहुत योगदान है।
Anonymous said…
cover story likhnewale celebrity writer/journalist ko pranaam

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