चार महीने इंदौर में रिपरेटिंग करने के बाद अब मैं फिर से झीलों की नगरी भोपाल में आ चुका है। नई जिम्मेदारियों के साथ नई चुनौतियां भी हैं। जो कि मेरे जैसे लोगों के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि यदि हमारे जैसे लोगों को नया काम, नई चुनौती नहीं दी जाए तो हमारे अंदर कुछ दम तोड़ने लगता है। सात महीने में दो ट्रांसफर के बाद भोपाल आकर अच्छा तो लग रहा है लेकिन यहां की गलियों में भटकते हुए वे पुरानी यादें भटकती आत्मा की तरह मेरा पीछा कर रही हैं। वे मुझे दबोचना चाह रही हैं और मैं बच रहा हूं। यहां के माखन लाल विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में बिताते दो साल मेरे लिए किसी जन्नत के अनुभव से कम नहीं थे। मस्ती की पाठशाला था यह विभाग। समय बदला तो बदल गया विश्वविद्यालय का भवन और बदल गए यहां के स्टूडेंट्स। लेकिन मेरे लिए आज भी कुछ नहीं बदला है। आज भी मैं पूरे अधिकार के साथ नए भवन में जाता हूं और पूरी गर्मजोशी के साथ नए ख्वाब लेकर आए लोगों से मिलता हूं। अच्छा लगता उन लोगों से मिलकर जिनकी आंखों में ख्वाब होता है। कुछ पाने, करने की ललक होती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पत्रकारिता विभाग में जो नए बच्चे आएं हैं, वे होशियार हैं। ये भारतीय पत्रकारिता की कमान संभालने के लिए तैयार हो रह हैं। खैर वापस लौटता हूं पुरानी भटकती यादों की ओर। मैं तो भटक रहा हूं लेकिन यदि आप भी मुझसे भोपाल या विश्वविद्यालय की कुछ यादें बांटना चाहते हैं तो प्लीज या तो कमेंट करें या फिर मुझे कॉल भी कर सकते हैं। मेरा नंबर है ९८२६१३३२१७
मुंबई यानि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्चे कुपोषित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्चे उन्हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम...
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vaise main bhi MCRP ka student raha hun, magar BCA ka.. patrakarita ka nahi.. ;)