Skip to main content

बनारस आपको हमेशा याद करेगा लच्छू महाराज...

लच्छू महाराज...आप भले ही इस दुनिया को अलविदा कह गए हों, लेकिन आपने जो प्यार और पहचान इस बनारस को दिया है, उसे कोई कैसे भुला सकता है। बनारस सिर्फ एक शहर नहीं है। बनारस वो रस है जिसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है जो इसकी मिट्टी की खुशबू को जानता हो। इसकी खुशबू को जानने के लिए आपको बनारस का होना पड़ेगा। बनारस की संकरी गलियां अपने आप में बहुत कुछ समेटे हैं। यहां हर गली, हर मुहल्ले में आपको ऐतिहासिक धरोहर मिलेगी, लेकिन कई बार उसकी कीमत हम तब जानते हैं जब ऐसा शख्स या तो हमसे जुदा हो जाता है या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना लेता है और हम अपने ही रत्नों से अनजान बने रह जाते हैं। ये कोई इत्तेफाक नहीं। बनारस के घाटों पर आप हर वो रंग देख सकते हैं जिसकी चाहत लिए आप यहां आते हैं। सुबह-शाम मंदिर और मस्जिद से एक साथ घंटा और अजान अगर कहीं सुनने को मिलता है तो वो शहर बनारस ही है। 

शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान सुबह-शाम बनारस शिव मंदिर में अपनी शहनाई की तान सुनाते थे और दुनिया सुध-बुध खोकर शहनाई की आवाज में खो जाती थी। बिस्मिल्लाह खान और बनारस एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। चाहे कैसा भी अवसर क्यों न हो, खान साहब अपने मधुर शहनाई वादन से सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे। आज भी बनारस की गलियों में उनकी छाप आप देख सकते हैं। यहां घट-घट में तुलसी के राम और कबीर बसते हैं। एक तरफ भक्ति और दूसरी तरफ धर्म के पाखंड पर चोट करती कबीर वाणी भी आपको बनारस में ही मिलेगी और कहीं नहीं।

कभी बनारस जाना हो तो दालमंडी जरूर जाइएगा। किसी जमाने में अपनी खूबसूरत तवायफों के लिए मशहूर ये इलाका आज दुनियाभर के समान बेचने के लिए पूरे पूर्वांचल में ख्यात है। बचपन में जब भी कोई बनारसी दालमंडी की गलियों से गुजरता था, तो गाह-ब-बगाह नजरें ऊपर चली ही जााया करती थीं। बस इतनी-सी ख्वाहिश के साथ कि किसी तवायफ की नजाकत दिख जाए। उम्र बढ़ने के साथ पता चला कि शहनाई के बेताज बादशाह बिस्मिल्लाह खान और प्रसिद्ध तबला वादक महाराजा लच्छू महाराज भी यहीं रहा करते थे। 

लेकिन अब न तो खान साहब रहे और न महाराज। फिर भी दालमंडी का ये इलाका हमेशा की तरह गुलजार रहेगा। यहां की आबोहवा में शहनाई से लेकर तबला के ताल की महक आज भी गूंज रही है। इसे महसूस करने की आवश्यकता है। हमारे जैसे युवाओं के लिए लच्छू महाराज हमेशा दादा जी रहे। हमारी जनरेशन का जो भी बच्चा उसने मिलता था, उन्हें दादाजी ही कहता था। 

यदि आपने कभी बनारस नहीं देखा है तो उसे समझने के लिए किसी खांटी बनारसी से मिल लीजिए। हर खांटी बनारसी अपने आप में बनारस को जीता है। ये बात आपको तभी समझ में आएगी, जब आप किसी खांटी बनारसी से मिलेंगे। लच्छू महाराज भी ऐसे ही खांटी बनारसी थे। दुख इस बात का है कि यहां की मिट्टी से जुड़े लोग एक-एक करके धीरे-धीरे इस जमीं से विदा ले रहे हैं।

इस साल की जुलाई जाते-जाते कई लोगों को अपने साथ ले गई। हैदर रजा और नीलाभ अश्क की मौत से हम अभी उबर भी नहीं पाए थे कि बनारस से खबर आई कि लच्छू महराज भी हमें छोड़कर चले गए। उनका जाना हर उस शख्स के लिए दुखदायी है जो बनारस और तबले के इश्क में डूबा रहता है। महाराज अब फिर कभी हमें तबला नहीं सुना सकते हैं, लेकिन जिन्होंने एक बार भी उन्हें तबले पर थाप देते सुना है, उनके जेहन में लच्छू महाराज हमेशा रहेंगे। बनारस आपको अराजक, जिद्दी और अक्खड़ बनाता है। लच्छू महाराज भी कुछ ऐसे ही थे। लच्छू महाराज के करीबियों की नजर में महाराज अपने दोस्तों में किस्सागोई के माहिर खिलाड़ी थे। हर खांटी बनारसी की तरह किस्से सुनाने में इनका कोई तोड़ नहीं था। लेकिन अक्खड़ इतने कि केवल अपनी ही शर्तों पर जीते थे। 1944 की 16 अक्टूबर की तारीख को जन्मे लच्छू महाराज का असली नाम लक्ष्मीनारायण था। 

बनारस घराने की तबला बजाने की परंपरा को उन्होंने उस स्तर पर पहुंचाया, जहां के बाद शायद कोई सीमा ही नहीं रह जाती। दालमंडी के जिस इलाके में वे रहते थे, उसी इलाके ने दुनिया को बिस्मिल्लाह साहब जैसा शहनाई वादक इस दुनिया को दिया। 

लच्छू महाराज इतने अक्खड़ थे कि वे हमेशा अपनी ही शर्तों पर ही तबला बजाते थे। किसी माई के लाल में इतनी मजाल नहीं थी कि कोई उनसे जबरदस्ती करवा सके। उन्होंने कभी कि‍सी के कहने पर तबला नहीं बजाया। जब दि‍ल कि‍या, तभी उंगलि‍यां चलाईं। एक किस्सा इनके बारे में काफी मशहूर है। बात 2002 की है शायद। सरकार उन्हें पद्श्री देना चाह रही थी, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। 

इसी तरह का एक किस्सा इमरजेंसी के वक्त का है। 1975 में जब इंदिरा सरकार ने उन्हें जब जेल में डाल दिया तो उन्होंने विरोध का नायाब तरीका निकाला। तबला लेकर पहुंच गए जेल। जेल में साथ मिला जॉर्ज फर्नांडीज, देवव्रत मजुमदार और मार्कंडेय जैसे धाकड़ समाजवादी नेताओं का। बस फिर क्या? महाराज ने सबको तबला बजाकर सुनाया। आपातकाल का इस तरीके से विरोध सिर्फ लच्छू महाराज ही कर सकते थे। 

जो दिल हमेशा तबले के लिए धड़कता था, उसी ने जुलाई की एक रात महाराज को धोखा दे दिया। बनारस घराने के लच्छू महाराज ने तबले की धमक पूरी दुनिया में फैलाई। लेकिन यदि आप कभी उनसे मिलते तो आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे कि इस शख्स के दुनियाभर में प्रशंसक हैं। ऐसी सादगी और विनम्रता की मूर्ति थे बनारस के लच्छू महाराज। 

ये बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि लच्छू महाराज ने कई फिल्मों में भी तबले की थाप दी है। वे जब भी तबले पर अपनी उंगलियां रखते थे तो इस लोक से दूर किसी दूसरे लोक में पहुंच जाते थे। जब भी वे तबला बजाते थे, उनकी उंगलियां खुद-ब-खुद चलने लगती थीं। 

आशीष महर्षि dainikbhaskar.com में न्यूज एडिटर के पद पर कार्यरत हैं।

Comments

बहुत ही सुन्दर आलेख। लच्छू महाराज के जीवन और उनकी कला पर संक्षिप्त पर सारगर्भित टिप्पणी।
Haresh Kumar said…
बनारस के घाटों पर आप हर वो रंग देख सकते हैं जिसकी चाहत लिए आप यहां आते हैं। सुबह-शाम मंदिर और मस्जिद से एक साथ घंटा और अजान अगर कहीं सुनने को मिलता है तो वो शहर बनारस ही है।

शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान सुबह-शाम बनारस शिव मंदिर में अपनी शहनाई की तान सुनाते थे और दुनिया सुध-बुध खोकर शहनाई की आवाज में खो जाती थी। बिस्मिल्लाह खान और बनारस एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। चाहे कैसा भी अवसर क्यों न हो, खान साहब अपने मधुर शहनाई वादन से सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे। आज भी बनारस की गलियों में उनकी छाप आप देख सकते हैं। यहां घट-घट में तुलसी के राम और कबीर बसते हैं। एक तरफ भक्ति और दूसरी तरफ धर्म के पाखंड पर चोट करती कबीर वाणी भी आपको बनारस में ही मिलेगी और कहीं नहीं।

Popular posts from this blog

मै जरुर वापस आऊंगा

समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्‍हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस श‍हर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्‍थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्‍तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्‍छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्‍यार है। और किसी भी प्‍यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्‍टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्‍त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्‍त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा

मुंबई का कड़वा सच

मुंबई या‍नि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्‍वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्‍ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्‍त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्‍चे कुपो‍षित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्‍चे उन्‍हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम

बस में तुम्‍हारा इंतजार

हर रोज की तरह मुझे आज भी पकड़नी थी बेस्‍ट की बस। हर रोज की तरह मैंने किया आज भी तुम्‍हारा इंतजार अंधेरी के उसी बस स्‍टॉप पर जहां कभी हम साथ मिला करते थे अक्‍सर बसों को मैं बस इसलिए छोड़ देता था ताकि तुम्‍हारा साथ पा सकूं ऑफिस के रास्‍ते में कई बार हम साथ साथ गए थे ऑफिस लेकिन अब वो बाते हो गई हैं यादें आज भी मैं बेस्‍ट की बस में तुम्‍हारा इंतजार करता हूं और मुंबई की खाक छानता हूं अंतर बस इतना है अब बस में तन्‍हा हूं फिर भी तुम्‍हारा इंतजार करता हूं