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डर, उलझन और भगवान का आसरा

समय बदल रहा है और इसी के साथ युवा पीढी की सोच भी। दुनिया भर के मंदिरों और नौजवानों की तो मैं नहीं जानता हूं लेकिन मैं अपने आसपास से जरुर रुबरु होता रहता हूं। ऐसा ही कुछ पिछले दिनों हुआ। इसी मंगलवार को मुंबई के सिद्वीविनायक मंदिर में जाना हूं। मंदिर में नौजवानों की संख्‍या देकर किसी की कही वो लाईन यादें आ गई जब किसी ने मुझसे कहा था कि आज की पीढ़ी एकदम नास्तिक हो गई है।

इस मंदिर में मुझे ऐसा देखने को नहीं मिला। हर शनिवार की रात तेज संगीत में झूमने वाले कई युवक युवतियां इस मंदिर में देखने को मिल जाएंगे। जब मंदिरों में नौजवानों की बढ़ती संख्‍या को लेकर मैने अपने एक साथी से चर्चा की तो उनकी बात सुनकर मेरे मन में चल रही जेहाद को पूर्णविराम मिला। लेकिन अभी भी मैं थोड़ा उलझन में हूं। देश और समाज जैसे जैसे तरक्‍की कर रहा है वैसे वैसे लोगों के मन में एक अंजाना सा डर या कहें कि उलझन बढ़ती जा रही है। चूंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा हमारे जैसे नौजवानों का है तो मंदिरों में संख्‍या भी इन्‍हीं की अधिक होगी। हम भले ही अंकल सैम के कदमों पर चलने का प्रयास करें लेकिन इसके बावजूद हम घर से निकलने से पहले अपनी राशिफल देखते हैं। आफिस में आने के साथ ही कम्‍प्‍यूटर को हाथ जोड़ते हैं। क्‍या है यह सब। क्‍या तरक्‍की और क्षद्वा का कोई आपसी संबंध है। जी हां, इन दोनों के बीच चोली दामन जैसा ही संबंध है। हम जैसे जैसे तरक्‍की करते जाते हैं वैसे वैसे हमारे मन में डर का बीज पनपने लगता है। वैश्विककरण के इस दौर में जहां हम तरक्‍की की नए पायदान चढ़ रहे हैं वहीं हममें डर भी पनप रहा है। यह डर है अविश्‍वास का और नए मूल्‍यों का। हमें डर लगता है नाकामयाबी से। हमें डर लगता है कि कहीं हम जहां से चले वहीं वापस ना आ जाएं। इसी से बचने के लिए हम मंदिरों में मन्‍नत और पूजापाठ करते हैं। मैने भी स्‍कूली दिनों में खूब मन्‍नत मांगी है। उस समय बस यही लाईन हुआ करती थी हे भगवान में परिक्षा में अच्‍छे नंबर से पास हो गया तो 51 रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगा। हर बार मैं पास होता गया और प्रसाद चढ़ाता गया। यह होती है आस्‍था। हम मंदिरों में लाखों रुपए का दानकर सकते हैं लेकिन किसी गरीब को दो रुपए देने के बदले उसे गालियां का हार पहना देते हैं। यह है हमारा दोगलापन।

Comments

भगवान जल्‍दी और मुंहमांगी सफलता दिलाते हैं, इस पुरानी कहावत ने लोगों खासकर नई पीढ़ी को मंदिरों की ओर मोड़ा है। इनमें से कुछ ही लोग सीधे आस्‍था से आते हैं। कई लोग सफलता चाहते हैं तो कुछ चाहते हैं कि मुझे भी लिफ्ट करा दे भगवान। इसके बाद नंबर डर का आता है। एक भय लोगों के मन में बसा होता है और उससे बचाने के लिए वे भगवान की शरण लेते हैं। मैं एक ऐसी युवती को जानता हूं जि‍सने सिद्दीविनायक से यह मांग की थी कि जिस लड़के से मेरा चक्‍कर है, उससे मुझे मुक्ति दिला दे। क्‍या कहेंगे आशीष भाई...लोग भगवान को किस किस काम के लिए नहीं पकड़ते।
ghughutibasuti said…
शायद हम घूस देने के इतने आदी हो गये हैं कि भगवान को भी घूस देते हैं।
घुघूती बासूती
Anonymous said…
सही है!

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