आईए हम मिलकर पत्रकार पत्रकार खेलें। जिसमें कुछ पत्रकार का दंभ भरने वाले होंगे तो कुछ दलाली के सिरमौर होंगे। एक बात तो तय है कि इस खेल में दलालों की संख्या रिकार्ड स्तर पर जा सकती है। और जो बेचारे वाकई में पत्रकार होंगे, उनकी संख्या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। पत्रकारिता में घुसे थे कि कुछ समाज और देश के लिए किया जा सकेगा। लेकिन अब लग रहा है कि दलाली के सिवाय कुछ भी यहां नहीं है। चाहे वह आजमगढ़ जैसा छोटा सा शहर हो या फिर मुंबई जैसा महानगर, एक बात दोनों ही जगह सामान्य है। वो यह कि इन दोनों जगह दलालों की कमी नहीं है। कुछेक सौ एक नोट में बिक जाते हैं तो कुछ हवाई टिकट पा कर बिक जाते हैं। बड़ी उल्झन में हूं। लगता है कि कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया। दोस्तों से लेकर पुराने पत्रकारों से बात करता हूं तो थोड़ी आशा की किरण नजर आती है। लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्हीं के बीच में से रास्ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।
मुंबई यानि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्चे कुपोषित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्चे उन्हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम
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बढ़िया अनुभव बताया आपने।