
सबसे खतरनाक होता है आस्तीन का इंसान होना...
डसता नहीं छुऱा भोंकता है पीठ में....
कांटे बिछाता है रास्ते में...फूलों की आड़ में...
बांहों में फलता-फूलता है...अमरबेल की तरह
पेड़ को ही खोखला कर देता है एक दिन...
जड़ों में डालता है मट्ठा...धीमे जहर सा...
और कभी सींचता है तेजाबी जहर से...
बुनियादें हिलाने तक रहता है आस्तीन में...
गिरता है जब कोई महल...तभी खिसकता है...
नए शिकार की खोज में....सारे हथियार लेकर...
जीवन भर की भागदौड़ तभी विराम लेती है...
जब खुद की सोच का जहर कर देता है तन नीला...
या कभी, कभी खुद की आस्तीन से ही निकल आता है इंसान...
तब जाती है जान...फरामोशी के इल्जाम से...
सबसे खतरनाक होता है आस्तीन का इंसान...
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