मैं उसे हर रोज तिल तिल कर मरते देखता हूं लेकिन कुछ नहीं करता हूं। या कहूं करना ही नहीं चाहता हूं। मुझे लग रहा है मैं अपनी संवेदना खो रहा हूं इस शहर में। मैं ऐसा तो नहीं था। लेकिन अब हो गया शायद। उसे देखकर दिल दुखता है लेकिन मैं कुछ नहीं करता हूं। वसई स्टेशन के पास हर रोज मैं जो देखता हूं, उसके बाद मुझे सोचना पड़ता है। मैं भी बाकियों की तरह उसके बगल से निकल जाता हूं, जैसे बाकी निकल जाते हैं। लेकिन वो पिछले कई सालों से वहीं सड़क किनारें अपनी एक गठरी के साथ टिकी हुई है। वो एक बुर्जुग महिला है। जो कि आसपास वाले दुकानदारों के रहमो करम पर जिंदा है। उसे जब भी देखता हूं तो अपनी नानी की याद आ जाती है। मेरी नानी भी इतनी ही बूढ़ी थी। लेकिन वो अब नहीं हैं। खैर वापस चलते हैं वसई। हर रोज उस बुढि़या को देखकर मन में एक टीस सी उबरती है। लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाता हूं। उसे हर रोज जिंदा देखकर मुझे अच्छा लगता है। वरना जिस हालत में वो है, ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि वो कब तक जिएगी। बरसात हो या फिर कड़ाते की ठंड। वो वहीं सड़क किनारे पड़ी रहती है। कभी पाव खाकर जिंदा रहती है तो कभी आस पास वाले रोटी दे देते हैं। यह कई सालों से चल रहा है। हो सकता है आज रात जब मैं वसई खाना खाने जाऊं तो वो नहीं दिखे।
Comments
बड़ा हूँ, झेल चुका हूँ सो समझा रहा हूँ.
लेकिन एक बार कहना चाह रहा हूं कि वह बूढ़ी अम्मा आप के कैमरे के सामने बैठ कर आपको बहुत उम्मीद से देख रही है।
आप मीडिया से संबंधित हैं, देखना आशीष, आप अगर इस अभागी मां को कोई वृद्धाश्रम तक पहुंचा दें तो उस पर बहुत उपकार हो जायेगा। या किसी भी तरह की उस की कोई मदद हो सके तो.....अगर यह नाचीज़ बंदा उस के किसी काम आ सके, तो लिखियेगा। प्लीज़..