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कुछ लिखा ही लेकिन क्या ?

कुछ दिनों से लगातार मन में एक अजीब सी उलझन चल रही थी....मुम्बई की इस भागदौड़ में समय निकल कर कुछ किताबे पढ़ा. इसमे हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा का पहला भाग क्या भूलूं क्या याद करूँ और कुछ कविताओं की छोटी छोटी कितबिया थी. इन सब को पढने के बाद एक कहानी लिखने का असफल प्रयास किया. लेकिन कहानी पूरी नहीं हो पाई. फिर कल रात में मैं एक कविता लिखा लेकिन शायद इसे कविता नहीं कहा जा सकता है. फिर भी कुछ लिखा है और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी लोगों के मार्गदर्शन में बेहतर लिख सकता हूँ मैं....बस आप अपनी बहुमूल्य राय से अवगत कराते रहिये.. मेरी कहानी पढ़ने के लिए यहाँ और कविता के लिया यहाँ क्लिक कीजिये.

Comments

Udan Tashtari said…
जाते हैं वहीं.

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मुंबई का कड़वा सच

मुंबई या‍नि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्‍वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्‍ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्‍त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्‍चे कुपो‍षित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्‍चे उन्‍हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम...

बेनामी जी आपके लिए

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