वे लोकतंत्र का अर्थ नहीं जानते हैं, आजादी का नाम तक नहीं सुना हैं. चुनाव का अर्थ इन्हे केवल इतना मालूम हैं की चुनाव एक दिन पहले गाँव का सरपंच आएगा और देसी दारू की थैली पकड़ा कर अपने दल को वोट देने को कहेगा। और वे मान भी जायेंगे। इन गाँव वालों से इस बात से कोई मतलब नही हैं कि उन्हें किस दल को वोट देना हैं और किसे नहीं? उन्हें बस दारू से मतलब हैं। यह तस्वीर देश के सबसे बडे राज्य राजस्थान की हैं।राजस्थान और गुजरात से सटे बांसवाड़ा जिले की यह सच्चाई से मैं उस समय रूबरू हुआ जब मैं अपने एक दोस्त के साथ राजस्थान के चुनाव को कवर कर रहा था। जिला मुख्यालय से मात्र ४० किलोमीटर दूर इस गाँव का नाम हैं चुन्नी खान गाँव। विकास से कोसों दूर इस गाँव में जाने के लिए जंगलों, पहाडियों और नाले को पार कर के ही जाया जा सकता हैं। जबकि मुख्य मार्ग से यह मात्र दो किलोमीटर ही अन्दर हैं। साइकिल तक नहीं जा सकती हैं इस गाँव में। ख़ैर हम किसी तरह इस गाँव में पहुंच ही जाते हैं।पच्चीस परिवारों वाले इस गाँव में पानी के लिए महिलाओं को दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता हैं। अस्पताल करीब दस किलोमीटर दूर कलिंजरा कस्बे में है। स्कूल चार किलोमीटर दूर है। यह अलग बात हैं की इस गाँव का एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता हैं।गाँव में खेती बाड़ी कर के अपना और अपने परिवार को पालने वाला कचरा खान कहता है कि हमें चुनाव वुनाव से क्या मतलब। दो रोटी का जुगाड़ हो जाये, वही बहुत हैं। कचरा को लोकतंत्र और आज़ादी के बारें मे कुछ भी नहीं मालूम हैं। यह अलग बात हैं कि हिंदुस्तान आज भी लोकतंत्र को खोज रहा हैं। लेकिन कचरा ने आज तक लोकतंत्र और आज़ादी का नाम तक नहीं सुना हैं।वोट देने के सवाल पर कचरा कहता हैं हम तो पहले अपने और अपने गाँव के विकास के लिए वोट देते थे लेकिन उन्होने शुरू से ही हमें बेवकूफ बनाया हैं।कचरा अपने पांच भाईयों में सबसे छोटा हैं। सत्तर साल के माखिया जो कि कचरा के पिता हैं, बताते हैं उनके एक बेटे की जान केवल इस लिए चली गई क्यों कि अस्पताल ले जाने के लिए कोई साधन नहीं था। माखिया ने बताया कि गाँव के लोग उसके बेटे को किसी तरह चारपाई पर कलिंजरा ले जा रहे थे लेकिन रास्ते में ही उसकी मौत हो गई है।इसी गाँव का बलजीत कहता है कि चुनाव के एक दिन पहले सरपंच आता हैं और दारू बाँट कर हमें किसी एक दल को वोट देने को कहता हैं और हम वोट दे भी देते हैं। बलजीत कहता हैं कि गाँव वाले उसी को वोट देते हैं, जिसका खाते हैं।पंचायत समिति सज्जनगढ़ में पडे वाले इस गाँव में पानी का एक भी स्त्रोत नहीं हैं। इस गाँव ने आज तक बिजली देखी नहीं हैं। जबकि सरकारी कागज़ों में इस गाँव में १९८७ से बिजली हैं।पड़ोस के माचा गाँव जो कि गुजरात जाने वाली सड़क से जुदा हुवा हैं, वहां लंबी कतार देखकर जब हमने गाड़ी से उतर कर पता करने कि कोशिश की तो पता चला हैं पिछले कई दिनों से ये लोग राशन की दुकान खुलने का इन्तजार कर रहे हैं। आज इनका पांचवा दिन था।
समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस शहर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्यार है। और किसी भी प्यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा
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