Skip to main content

विदर्भ में नहीं थम रहा हैं किसानों की आत्महत्या का दौर

देश के सरकारी खजाने में सबसे अधिक धन देने वाले ही राज्‍य के किसान अधिक आत्‍महत्‍या करने लगें तो यह बड़ी आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में उन इलाकों में भी लोग लाल सलाम करते हुए नजर आएंगे जहां सबसे अधिक आत्‍महत्‍या हो रही है। जी हां मैं बात कर रहा हूं महाराष्‍ट्र के विदर्भ इलाके की। जहां केवल इसी साल करीब 784 किसानों ने आत्‍महत्‍या कर ली है। जबकि, पिछले साल प्रधानमंत्री की ओर से जारी भारी भरकम पैकेज के बाद यह आंकड़ा 1648 तक पहुंच गया है। इन इलाकों में किसानों की आत्‍महत्‍या बढ़ने के साथ नक्‍सली हिंसा का खतरा भी बढ़ गया है। हालांकि, दिल्‍ली से मुंबई तक किसी को भी इस बात की भनक नहीं है। लेकिन स्थिति ऐसी ही बन रही। क्‍या हम इस बात से इंकार कर सकते हैं कि जिस प्रकार छत्‍तीसगढ़ जैसे कई राज्‍यों में सरकारी दमन से शोषित किसानों, आदिवासियों और आम आदमी ने हथियार उठाया है, ऐसी स्थिति महाराष्‍ट्र में नहीं बन सकती है।

लेकिन इन बातों से बेखबर देश के कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री विलासराव देशमुख का कहना है कि विदर्भ में किसानों की आत्‍महत्‍या कम हुई है। कल जब राज्‍य के दौरे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आए हुए थे, उसी दिन अकोला के राकेश बंबल समेत पांच किसानों ने आत्‍महत्‍या कर ली। यह आत्‍महत्‍या ऐसे समय में हो रही है जब हमने अभी कुछ दिनों पहले ही देश की आजादी की साठवी सालगिरह यह कहते हुए मनाई है कि हम आज काफी कामयाब देश हैं।

इसे इस देश की बानगी ही कहेंगे कि हम परमाणु सम्‍पन्‍न देश बन चुके हैं, लेकिन आज भी हमारे अन्‍नदाताओं को आत्‍महत्‍या जैसे रास्‍ते पर जाना पड़ रहा है। विदर्भ में किसानों के लिए काम करने वाले किशोर तिवारी कहते हैं कि विदर्भ की स्थिति बहुत खराब है। कपास किसानों के ऊपर बैंकों का भारी दबाव है, जिसके कारण वो आत्‍महत्‍या को मजबूर हैं।

मई 2004 में सत्‍ता में आने के बाद यूपीए के विभिन्‍न दलों ने न्‍यूतम साझा कार्यक्रम बनाया था कि जिसमें कहा गया था कि केंद्र सरकार किसानों, कृषि श्रमिकों तथा कामगारों, विशेषकर असं‍ग‍ठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के कल्‍याण तथा हित साधनों में बढ़ोतरी करना तथा हर तरह से उनके परिवारों के लिए एक सुरक्षित भविष्‍य आश्‍वस्‍त करने का प्रयास करेंगी।


पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके का दौरा करने के बाद 37 अरब 50 करोड़ रूपए का एक भारी भरकम राहत पैकेत की धोषणा की थी लेकिन इस राहत पैकेज के बावजूद किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आने न सिर्फ केंद्र सरकार के लिए डूब मरने की बात है, बल्कि यह एक सभ्‍य समाज के लिए भी शर्म की बात है, जो आज भी जाति धर्म और पंत के नाम पर मरने मारने पर उतारु हो जाता है।

Comments

ghughutibasuti said…
निश्चित ही यह चिन्ता की बात है और बिना समय बर्बाद किये किस कुशल अधिकारी को वहाँ भेजकर कोई न कोई उपाय ढूँढा जाना चाहिये । पैसा देना तो एक अंशकालिक उपाय है ।
घुघूती बासूती
मुआवज़े की घोषणा को ख़बर के तौर पर दिखाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इससे नेताओं को सिर्फ अपनी पीठ थपथपाते का मौक़ा मिलता हैं...किसानों की हालत में सुधार नहीं होता।

Popular posts from this blog

मै जरुर वापस आऊंगा

समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्‍हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस श‍हर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्‍थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्‍तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्‍छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्‍यार है। और किसी भी प्‍यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्‍टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्‍त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्‍त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा

मुंबई का कड़वा सच

मुंबई या‍नि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्‍वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्‍ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्‍त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्‍चे कुपो‍षित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्‍चे उन्‍हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम

बस में तुम्‍हारा इंतजार

हर रोज की तरह मुझे आज भी पकड़नी थी बेस्‍ट की बस। हर रोज की तरह मैंने किया आज भी तुम्‍हारा इंतजार अंधेरी के उसी बस स्‍टॉप पर जहां कभी हम साथ मिला करते थे अक्‍सर बसों को मैं बस इसलिए छोड़ देता था ताकि तुम्‍हारा साथ पा सकूं ऑफिस के रास्‍ते में कई बार हम साथ साथ गए थे ऑफिस लेकिन अब वो बाते हो गई हैं यादें आज भी मैं बेस्‍ट की बस में तुम्‍हारा इंतजार करता हूं और मुंबई की खाक छानता हूं अंतर बस इतना है अब बस में तन्‍हा हूं फिर भी तुम्‍हारा इंतजार करता हूं