Skip to main content

रेगिस्तान और वों : बंजर जमीं इंतजार की

यह जिन्दगी भी अजीब है। कब चलते चलते थकाऊ बन जाए? कुछ नहीं पता. लेकिन जिन्दगी है तो इसका साथ भी निभाना पड़ेगा. यही सोचते सोचते कब उसकी आँख लग दी? पता ही नहीं चला. उसकी ज़िंदगी में जब वो पहली दफा आई थी तो सब कुछ बदल चुका था. उसे पहली नजर में ही उससे प्यार हो गया था. हाँ जी प्यार. वही प्यार जो उस उमर में अच्छे अच्छे को हो जाता है. उसे भी हो गया था. परियों से भी अधिक खूबसूरत थी वो. उसकी बड़ी बड़ी आंखों में सिर्फ़ और सिर्फ़ हसीं सपने के. एक खूबसूरत राजकुमार का और सुखद भविष्य का. जबकि अमित की नज़रे रेगिस्तान की तरह सुनसान और बंजर थी. सपने तो यहाँ भी थे. लेकिन उसकी आँखों में दिखते नहीं थे.

वों बंजर रेगिस्तान से आता था, जहाँ हजारों की तादाद में रहस्य छिपे रहते हैं. जबकि वो उस मिटटी से आती थी जहाँ गंगा बहती थी. ऐसे में रेगिस्तान और गंगा का संगम कहाँ हो सकता है, लेकिन अमित ने पूरा प्रयास किया कि यह संगम हो. लेकिन गंगा तो भगवान के चरणों के लिए बनी है, हजारों सालों की परम्परा पल में थोड़े ही ध्वस्त होती है. रेगिस्तान की बंजर भूमि का कभी गंगा का निर्मल जल नहीं मिलता. फिर भी हजारों सालों से रेगिस्तान को गंगा का इंतजार है। इंतजार पहले दिन में और फिर सालों में बदल चुका हैं। लेकिन बंजर भूमि आज भी बंजर ही है।

जारी .............

Comments

Udan Tashtari said…
जारी रखें-कहानी पकड़ने का प्रयास कर रहा हूँ. संरचना बढ़िया है.
रेगिस्तान की बंजर भूमि का कभी गंगा का निर्मल जल नहीं मिलता. फिर भी हजारों सालों से रेगिस्तान को गंगा का इंतजार है...
ऐस ही परस्पर विरोधी चीजों के साथ आने से आता है रचना में सौंदर्यबोध और कसक। लिखते रहिए। अगली कड़ी का इंतजार है।
Anita kumar said…
अजी कहां हमने तो सुना इंदिरा गांधी केनाल बनए के बाद रेगिस्तान मएं हरियाली खूब लहलहाती है। …।:) फ़िर भी अगली कड़ी का इंतजार हैं। शशी कपूर और शर्मिला पर पिक्चराइअजड एक गाना याद आ रहा है आप की पोस्ट पढ़ कर…॥
ghughutibasuti said…
अब तक की कहानी अच्छी लगी । अगली कड़ी की प्रतीक्षा है ।
घुघूती बासूती
रोचक रचना है...छायावाद का प्रभाव ,,! मैने रेगिस्तान की बंजर ज़मीन को बारिश की कुछ बूँदों से भी खुश होते देखा है.. छोटी छोटी हरी झाड़ियों के रूप मे खुशी ज़ाहेर करते देखा है.
अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है...
शुभकामनाएँ

Popular posts from this blog

मै जरुर वापस आऊंगा

समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्‍हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस श‍हर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्‍थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्‍तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्‍छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्‍यार है। और किसी भी प्‍यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्‍टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्‍त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्‍त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा

मुंबई का कड़वा सच

मुंबई या‍नि मायानगरी। मुंबई का नाम लेते ही हमारे जेहन में एक उस शहर की तस्‍वीर सामने आती हैं जहां हर रोज लाखों लोग अपने सपनों के संग आते हैं और फिर जी जान से जुट जाते हैं उन सपनों को साकार करने के लिए। मुंबई जानी जाती है कि हमेशा एक जागते हुए शहर में। वो शहर जो कभी नहीं सोता है, मुंबई सिर्फ जगमगाता ही है। लेकिन मुंबई में ही एक और भी दुनिया है जो कि हमें नहीं दिखती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं बोरिवली के आसपास के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों की जो कि पिछले दिनों राष्‍ट्रीय खबर में छाए रहे अपनी गरीबी और तंगहाली को लेकर। आप सोच रहे होंगे कि कंक्रीट के जंगलों में असली जंगल और आदिवासी। दिमाग पर अधिक जोर लगाने का प्रयास करना बेकार है। मुंबई के बोरिवली जहां राजीव गांधी के नाम पर एक राष्ट्रीय पार्क है। इस पार्क में कुछ आदिवासियों के गांव हैं, जो कि सैकड़ो सालों से इन जंगलों में हैं। आज पर्याप्‍त कमाई नहीं हो पाने के कारण इनके बच्‍चे कुपो‍षित हैं, महिलाओं की स्थिति भी कोई खास नहीं है। पार्क में आने वाले जो अपना झूठा खाना फेंक देते हैं, बच्‍चे उन्‍हें खा कर गुजारा कर लेते हैं। आदिवासी आदम

बस में तुम्‍हारा इंतजार

हर रोज की तरह मुझे आज भी पकड़नी थी बेस्‍ट की बस। हर रोज की तरह मैंने किया आज भी तुम्‍हारा इंतजार अंधेरी के उसी बस स्‍टॉप पर जहां कभी हम साथ मिला करते थे अक्‍सर बसों को मैं बस इसलिए छोड़ देता था ताकि तुम्‍हारा साथ पा सकूं ऑफिस के रास्‍ते में कई बार हम साथ साथ गए थे ऑफिस लेकिन अब वो बाते हो गई हैं यादें आज भी मैं बेस्‍ट की बस में तुम्‍हारा इंतजार करता हूं और मुंबई की खाक छानता हूं अंतर बस इतना है अब बस में तन्‍हा हूं फिर भी तुम्‍हारा इंतजार करता हूं