अमित पिछले कई दिनों में गांधी होने के मायने को समझने का प्रयास कर रहा है। गांधी की आत्मकथा को पढ़ा। गांधी को समझने में उसका व्यक्तिगत हित छुपा हुआ है। हर इंसान हमेशा अपने तो दूसरे से बेहतर समझता है। हर इंसान को लगता है कि वो जो बोल रहा है, सोच रहा है, वही सही है। इंसान चाहता है कि उसकी प्रतिष्ठा हो। लोग उसकी इज्जत करें। उसकी बातों से किसी को तकलीफ न हो। लोग उसे हमेशा एक अच्छे इंसान के रुप में पहचाने। अमित भी कईयों की तरह एक बेहतर इंसान बनने का प्रयास कर रहा है। लेकिन कहते हैं न कि हर आदमी ने कई आदमी बसते हैं। शुरु से ही अमित का मानना था कि लोगों को साथ लेकर चला जाए। लेकिन यह संभव होता नहीं दिख रहा है। किसी एक को साथ लेने की कोशिश में दूसरे साथी छूट जाते हैं। जिन्हें अमित छोड़ना नहीं चाहता है। दोस्तों से गलतफहमी होती है तो उसे दूर करने का प्रयास करता है लेकिन दूसरे उसे उसकी कमजोरी समझकर उसका उपहास उड़ाते हैं। लेकिन वो ऐसा नहीं है। उसे फर्क नहीं पड़ता है कि लोग उसके बारें में क्या सोचते हैं। लेकिन सही मायने में पड़ता भी है। कामिनी का ऐसे छोड़कर चले जाना उसे बड़ा सता रहा है और अब अमित अपने और उसके बीच पैदा हो रही गलतफहमी को दूर करना चाहता है। इसी लिए कामिनी को एक के बाद एक पत्र लिखता है लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आता है।
समझ में नहीं आ रहा कि शुरुआत क्हां से और कैसे करुं। लेकिन शुरुआत तो करनी होगी। मुंबई में दो साल हो गए हैं और अब इस शहर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि मैं जहां भी रहता हूं उसके मोह में बंध जाता हूं। बनारस से राजस्थान आते भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ था। फिर जयपुर से भोपाल जाते हुए दिल को तकलीफ हुई थी। इसके बाद भोपाल से मुंबई आते हुए भोपाल और दोस्तों को छोड़ते हुए डर लग रहा था। और आज मुंबई छोड़ते हुए अच्छा नहीं लग रहा है। मैं बार बार लिखता रहा हूं कि मुंबई मेरा दूसरा प्यार है। और किसी भी प्यार को छोडते हुए विरह की अग्नि में जलना बड़ा कष्टदायक होता है। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया। इस शहर से मुझे एक अस्तिव मिला। कुछ वक्त उसके साथ गुजारने का मौका मिला, जिसके साथ मैने सोचा भी नहीं था। मुंबई पर कई लेख लिखते वक्त इस शहरों को पूरी तरह मैने जिया है। लेकिन अब छोड़कर जाना पड़ रहा है। बचपन से लेकर अब तक कई शहरों में जिंदगी बसर करने का मौका मिला। लेकिन बनारस और मुंबई ही दो ऐसे शहर हैं जो मेरे मिजाज से मेल खाते हैं। बाकी शहरों में थोड़ी सी बोरियत होती है लेकिन यहां ऐसा
Comments
कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता।
बहरहाल, ऐसे मिजाज़ में गांधी को पढ़ना बड़ी बात है। जितना खोया है, उससे कुछ ज्यादा लेकर लौटेगा, इसकी मुझे पूरी उम्मीद है।